NCERT Solutions for Class 12 Hindi Vitan chapter 3 – पूरक पाठ्यपुस्तक-अतीत में दबे पाँव

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लेखक परिचय

जीवन परिचय-ओम थानवी का जन्म 1957 ई० में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा बीकानेर में हुई थी। इन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से व्यावसायिक प्रशासन में एम०कॉम० किया। ये ‘एडीटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया’ के महासचिव रहे। 1980 से 1989 तक इन्होंने ‘राजस्थान पत्रिका’ में काम किया। ‘इतवारी पत्रिका’ के संपादन ने साप्ताहिक को विशेष प्रतिष्ठा दिलाई। ये अपने सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के लिए जाने जाते हैं। अभिनेता और निर्देशक के रूप में ये स्वयं रंगमंच पर सक्रिय रहे। इनकी गहन दिलचस्पी साहित्य, कला, सिनेमा, वास्तुकला, पुरातत्व और पर्यावरण में है। इन्होंने अस्सी के दशक में सेंटर फ़ॉर साइंस एनवायरनमेंट (सी०एस०ई०) की फ़ेलोशिप पर राजस्थान के पारंपरिक जल-स्रोतों पर खोजबीन करके इसके बारे में विस्तार से लिखा। इन्हें पत्रकारिता में कई पुरस्कार मिले, जिनमें गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार प्रमुख है। 1999 ई० में इन्होंने दैनिक जनसत्ता के दिल्ली और कोलकाता के संस्करणों का संपादकीय दायित्व सँभाला। संप्रति, ये इसी समाचार-पत्र के संपादक के रूप में कार्यरत हैं।

पाठ का सारांश

लेखक कहता है कि हड़प्पा व मुअनजो-दड़ो-दोनों स्थान अभी तक दुनिया के सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। मुअन जो-दड़ो ताम्रकाल के शहरों में सबसे बड़ा था। यहाँ खुदाई में बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भौंडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले हैं। हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेल लाइन बिछने के दौरान विकास की भेंट चढ़ गए। मुअन जो-दड़ो को सभ्यता का केंद्र माना जाता है। यह दो सौ हेक्टेअर क्षेत्र में फैला था तथा इसकी आबादी लगभग पचासी हजार थी। यह नगर छोटे-मोटे टीलों पर आबाद था तथा ये प्राकृतिक नहीं थे। कच्ची-पक्की ईटों से धरती की सतह को ऊँचा उठाया गया था। इस शहर की सड़कों व गलियों में अब भी घूमा जा सकता है। यहाँ का सामान अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा है, परंतु शहर वहीं है। इस शहर की गलियाँ, मकान, चबूतरे, खिड़की, रसोई, सड़कें आदि सुंदर नगर-नियोजन की कहानी कहते हैं। शहर के सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है, परंतु यह मुअनजो-दड़ो सभ्यता के जीर्ण-शीर्ण टीले पर बना है। 1922 ई० में राखलदास बनर्जी ने इस स्तूप की खोज की तो उन्हें यहाँ ईसा पूर्व के निशान मिले।

तत्कालीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जॉन मार्शल के निर्देश पर खुदाई का व्यापक अभियान शुरू हुआ और भारत दुनिया की प्राचीन लेखक सबसे पहले इसी स्तूप पर पहुँचा। इसे नागर भारत का सबसे पुराना लैंडस्केप कहा गया है। सर्दी के मौसम में भी धूप घुमाएँ तो तसवीरों के रंग उड़े हुए प्रतीत होते हैं। स्तूप वाले हिस्से को ‘गढ़’ कहा जाता है। दुनिया-भर की प्रसिद्ध इमारतों के खंडहर चबूतरे के पश्चिम में हैं। इनमें प्रशासनिक इमारतें, सभा-भवन, ज्ञानशाला और कोठार हैं। केवल अनुष्ठानिक महाकुंड अपने मूल स्वरूप में बचा है, शेष इमारतें उजड़ी हुई हैं। मुअनजो-दड़ो का नगर नियोजन बेमिसाल है। अधिकांश सड़कें सीधी हैं या आड़ी। इसे वस्तुकार ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं आजकल की सेक्टर-माका कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा नियोजन मिलता है, परंतु वह रहन-सहन को नीरस बनाता है ब्रासीलिया, चंडीगढ़ या इस्लामाबाद ग्रिड शैली के शहर हैं, परंतु उनमें स्वयं विकसने की क्षमता नहीं है।

चबूतरे के ‘गढ़’ और ठीक सामने ‘उच्च’ वर्ग की बस्ती है। उसके पीछे पाँच किलोमीटर दूर सिंधु बहती है। दक्षिण में टूटेघर कामगारों के हैं। लेखक प्रश्न करता है कि निम्न वर्ग का अस्तित्व था या नहीं? शायद उनके घर कमजोर रहे जो समय के अनुसार नष्ट हो गए होंगे। टीले के पास महाकुंड है। इसका नाम ‘दैव मार्ग’ रखा गया है। यह सामूहिक स्नान के काम आता था। यह 40 फुट 25 फुट चौड़ा व सात फुट गहरा है। इसके उत्तर व दक्षिण से सीढ़ियाँ उतरती हैं। इसके तीन तरफ साधुओं के कक्ष हैं त उत्तर में दो पाँत में आठ स्नानघर हैं। इनमें किसी का दरवाजा दूसरे के सामने नहीं खुलता। इस कुंड का निर्माण पक्की ई से हुआ है। पानी का रिसाव रोकने तथा गंदे पानी से बचाव के लिए कुंड के तल व दीवारों पर चूने व चिरोड़ी के गारे प्रयोग किया गया है। पानी के लिए एक तरफ कुआँ है। कुंड से पानी को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैं। ये पक्की से बनी हैं तथा ईटों से ढकी भी हैं। जल-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले के इतिहास में नहीं मिलता। कुंड के दूसरी तरफ विशाल कोठार है। शायद यहाँ कर के रूप में हासिल अनाज जमा किया जाता था।

यहाँ नौ-नौ चौकियों की तीन कतारें हैं तथा उत्तर की एक गली में बैलगाड़ियों के प्रयोग के साक्ष्य मिले हैं जो माल की दुलाई करती होंगी। सिंधु घाटी काल में व्यापार के साथ उन्नत खेती भी होती थी। अब इसे खेतिहर व पशुपालक सभ्यता माना जाता है। पत्थर व ताँबे की बहुतायत थी, परंतु लोहा नहीं था। पत्थर सिंध से तथा ताँबा राजस्थान से मिलता था। इनके उपकरण खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाते थे। कपास, गेहूँ, जौ, सरसों व चने की उपज के सबूत मिले हैं। यहाँ कपास, बेर, खजूर, खरबूजे, अंगूर, ज्वार, बाजरा और रागी की खेती भी होती थी। यहाँ से मिला सूती कपड़ा दुनिया के सबसे पुराने नमूनों में से एक है। दूसरा सूती कपड़ा तीन हजार ईसा पूर्व का है जो जॉर्डन में मिला। मुअनजो-दड़ो में रँगाई भी होती थी। ऊन व लिनन का आयात सुमेर से होता था। महाकुंड के उत्तर-पूर्व में लंबी इमारत के अवशेष मिले हैं। इसके बीच में खुला बड़ा दालान है तथा तीन तरफ बरामदे हैं। इसे कॉलेज ऑफ़ प्रीस्ट्स माना जाता है।

दक्षिण में बीस खंभों वाला एक हाल है जो शायद राज्य सचिवालय, सभा-भवन या सामुदायिक केंद्र रहा होगा। गढ़ की चारदीवारी के बाहर ‘नीचा नगर’ था। खुदाई की प्रक्रिया में टीलों का आकार घट गया था। पूरब की बस्ती ‘रईसों की बस्ती’ है। इसमें बड़े घर, चौड़ी सड़कें तथा ज्यादा कुएँ थे। मुअनजो-दड़ो के सभी खंडहरो की खुदाई करनेवाले पुरातत्ववेत्तओं का संक्षिप्त नाम ‘डीके’ रचा गया है। ‘डीके’ क्षेत्र दोनों बस्तियों में सबसे महत्वपूर्ण हैं। शहर की मुख्य सड़क यहीं पर है। यह बहुत लंबी सड़क है तथा तैतीस फुट चौड़ी है। इस पर एक साथ दो बैलगाड़ियाँ आ-जा सकती थीं। यह सड़क ‘बाजार’ तक पहुँचती थी। इस सड़क के दोनों ओर घर हैं। सड़क की तरफ कोई दरवाजा नहीं है। काबूजिए ने भी चंडीगढ़ में इस शैली का प्रयोग किया था। सड़क के दोनों तरफ ढँकी हुई नालियाँ थीं। हर घर में एक स्नानघर है और नालियाँ घर का पानी हौदी तक लाती हैं तथा फिर वे नालियों के जाल से जुड़ जाती हैं। ज्यादातर नालियाँ ढकी हुई हैं। बस्ती के भीतर सड़कें नौ से बारह फुट तक चौड़ी हैं। बस्ती के कुएँ पकी हुई एक ही आकार की ईंटों से बने हैं। यहाँ लगभग सात सौ कुएँ पाए गए हैं। इसे ‘जल संस्कृति’ भी कहा जा सकता है।

‘डीके जी’ हलके के घरों की दीवारें ऊँची और मोटी हैं। यहाँ शायद दु मंजिले मकान भी होंगे। सभी पकी हुई ईटों से बने थे तथा ईटें भी एक ही आकार 1: 2: 4 के अनुपात की हैं। यहाँ घरों में केवल प्रवेश द्वार हैं, खिड़कियों नहीं हैं। बड़े घरों के भीतर आँगन के चारों तरफ बने कमरों में खिड़कियाँ हैं। घर छोटे-बड़े हैं। सभी घर एक कतार में हैं तथा अधिकतर का आकार तीस गुणा-तीस फुट का है। कुछ इनसे काफी बड़े भी हैं। सबकी वास्तु-शैली भी एक-जैसी लगती है। डीके-बी, सी हलके से ऐक घर से दाढ़ी वाले याजक-नरेश की मूर्ति मिली है। ‘एच आर’ हलके के बड़े घर में कुछ कंकाल मिले हैं। प्रसिद्ध ‘नर्तकी’ शिल्प भी इसी हलके के छोटे घर से मिली है। यहीं पर एक बड़ा घर है जिसे उपासना-केंद्र समझा जाता है। गढ़ी के पीछे ‘वीएस’ हिस्से में ‘रैंगरेज का कारखाना’ है जहाँ जमीन में ईटों के गोल गट्ठे उभरे हुए हैं। यहाँ दो कतारों में सोलह छोटे एक-मैंजिला मकान हैं। सबमें दो-दो कमरे हैं। ये कर्मचारियों या कामगारों के घर रहे होंगे। मुअनजो-दड़ो में कुओं को छोड़कर अन्य सभी वस्तुएँ चौकोर या आयताकार हैं।

लेखक बड़े घरों में भी छोटे कमरे देखकर हैरान है। इसका कारण आबादी बढ़ना या निचली मंजिल पर नौकरों का निवास हो सकता है। सीढ़ियाँ शायद लकड़ी की रही होंगी। ऊपरी मंजिल पर लकड़ी की साज-सज्जा की जाती होगी। अधिकतर घरे में खिड़कियों या दरवाजों पर छज्जों के चिहन नहीं हैं। गरम क्षेत्र में ये चीजें आम होती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि हाथी, शेर, गैंडा आदि जीवों की तसवीरों से लगता है कि यहाँ जगल थे तथा अच्छी खेती से सिंचाई की जाती थी। इस क्षेत्र में नहर के प्रमाण नहीं मिलते। इसका मतलब यह निकलता है कि घटने तथा कुंओं के अत्यधिक इस्तेमाल से भूतल जल भी नीचे चला गया और बस्ती उजड़ गई।

तेज हवा बह रही थी। हर जगह लेखक को साँय-साँय की ध्वनि सुनाई दे रही थी। यहाँ सब खंडहर हैं। नहीं है, लेकिन घर एक नक्शा ही नहीं होता। हर घर का एक संस्कारमय आकार होता है। किसी भी घर समय एक अपराध-बोध भी होता था। लेखक को यहाँ राजस्थान व सिंध-गुजरात के घर याद आ गए। यहाँ व ज्वार की खेती हजारों साल से होती है। मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए उसे जैसलमेर के गाँव कुलधरा आई। यह पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गाँव है। यहाँ घर हैं, परंतु लोग नहीं हैं। डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर स्वाभिमानी गाँव का हर सदस्य अपना घर छोड़कर चला गया। घर खंडहर हो गए, पर ढहे नहीं। लोग निकल गए, वक्त वहीं रह गया। जॉन मार्शल ने मुअनजो-दड़ो पर तीन खंडों में एक विशाल ग्रंथ छपवाया। उसमें खुदाई में मिली ठोस पहियों वाली मिट्टी की गाड़ी के चित्र के साथ सिंध की वर्तमान बैलगाड़ी का चित्र प्रकाशित है। दोनों में कमानी या आरे वाले पहिये का प्रयोग किया गया है। अब उन पहियों की जगह जीप के उतरन पहिये लगते हैं। हवाई जहाज के उतरन पहिये बाजार में आने के बाद ऊँट गाड़ी का भी आविष्कार हो गया।

मेजबान ने अजायबघर के बारे में बताया। यह अजायबघर छोटा है तथा सामान भी ज्यादा नहीं है। अधिकतर चीजें कराची, लाहौर, दिल्ली और लंदन की हैं। मुअनजो-दड़ो से ही पचास हजार से ज्यादा चीजें मिली हैं। यहाँ पर काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे व काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, चौपड़ की गोटियाँ, दीये, माप-तौल पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, दो पाटन वाली चक्की, कंघी, पत्थर के औजार, सोने के गहने आदि थे। इस अजायबघर में औजार तो हैं, परंतु हथियार नहीं हैं। पूरी सिंधु-सभ्यता में कहीं हथियार नहीं मिलते। विद्वान निष्कर्ष निकालते हैं कि यहाँ अनुशासन ताकत के बल पर नहीं था। शायद सैन्य सत्ता भी न रही हो। दूसरे, यहाँ प्रभुत्व या दिखावे के तेवर नदारद हैं। दूसरी सभ्यताओं में राजतंत्र या धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महल, उपासना-स्थल, मूर्तियाँ और पिरामिड मिलते हैं, परंतु हड़प्पा संस्कृति में महल, मंदिर, समाधियाँ नहीं मिलतीं। यहाँ के मूर्ति शिल्प व औजार भी छोटे हैं। मुकुट व नावें भी छोटी थीं। शायद यह ‘लो-प्रोफ़ाइल’ सभ्यता थी। मुअनजो-दड़ो साधन व व्यवस्थाओं के अनुसार भी सबसे समृद्ध है, परंतु यहाँ आडंबर नहीं है।
दूसरे, यहाँ की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है,

अत: अनेक रहस्य अभी तक सामने नहीं आए हैं। सिंधु घाटी के लोग कलाप्रिय थे। उनकी यह कलाप्रियता, वास्तुकला, धातु व पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति, पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, उन पर उकेरी गई। आकृतियाँ, खिलौने, सुघड़ अक्षरों से सिद्ध होती है। सिंधु घाटी सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध है जो राजपोषित या धर्मपोषित न होकर समाज-पोषित था। अजायबघर में ताँबे व काँसे की सूइयाँ मिली हैं। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सूइयाँ मिलीं। शायद ये कशीदेकारी में काम आती रही होंगी। ‘नरेश’ के बदन पर आकर्षक गुलकारी वाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा ‘अजरक’ सिंध की खास पहचान है। यहाँ हाथी-दाँत व ताँबे के सूए भी मिले हैं जो शायद दरियाँ बनाने के काम आते थे। अब मुअनजो-दड़ो में खुदाई बंद कर दी गई है क्योंकि सिंधु के पानी के रिसाव से क्षार और दलदल की समस्या पैदा हो गई है। अब इन खंडहरों को बचाकर रखना ही बड़ी चुनौती है।

शब्दार्थ

अतीत में दबे पाँव – प्राचीन काल के अवशेष। मुअनजो-दड़ो – मुदों का टीला, पाकिस्तान के सिंध प्रांत में पुरातात्विक स्थल। हड़प्पा – पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का पुरातात्विक स्थल। परवर्ती – बाद के काल का। परिपक्व दौर – समृद्ध काल। उत्कृष्ट – सर्वश्रेष्ठ। व्यापक – विस्तृत। चित्रित भाडे – ऐसे बर्तन जिन पर चित्र बने हों। साक्ष्य – प्रमाण। आबाद – जहाँ लोग रहते हों। टीले – छोटे-छोटे मिट्टी के शिखर। खूबी – विशेषता। आदिम – अत्यंत प्राचीन। इलहाम – ईश्वरीय प्रेरणा। सर्पिल – साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा। पगडडी – पैदल चलने के लिए सँकरा मार्ग। अयलक – पलक अपकाए बिना निरंतर देखना। नागर – नगरीय गुणों से युक्त सभ्यता। लैंडस्केय – भू-दृश्य। आलम – संसार। ऐतिहासिक – इतिहास प्रसिद्ध। ज्ञानशाला – विद्यालय। कोठार – भंडार। अनुष्ठानिक – पर्व। महाकुंड – यज्ञ का विशाल कुंड। अदवितीय – अनोखा। वास्तुकौशल –भवन-निर्माण की चतुराई। नगर-नियोजन – शहर बसाने की विधि। अनूठी – अनुपम। मिसाल – उदाहरण। भाँपना – अनुमान लगाना। कमोवेश – थोड़ी-बहुत। अराजकता –अशांति, अव्यवस्था। प्रतिमान – मानक। कामगार – मजदूर। ड़तर – भिन्न।

विहार – बौद्ध-आश्रम। सायास – प्रयत्न सहित। धरोहर – उत्तराधिकार में प्राप्त। दैव – ईश्वरीय। अनुष्ठान – आयोजन। पाँत – पंक्ति। पाश्व – अगल-बगल की जगह। समरूप –समान। धूसर – धूल के रंग के। निकासी – निकालना। बदोबस्त – इंतजाम। परिक्रमा – चक्कर लगाना। जगजाहिर – सभी द्वारा जाना हुआ। निमूल – शंकारहित। अवशेष –चिहन। भग्न – टूटी हुई। वास्तुकला – भवन-निर्माण कला। चेतन – मस्तिष्क का जाग्रत हिस्सा। अवचेतन – मस्तिष्क का सोया हुआ हिस्सा। बाशिंदे – निवासी। सरोकार –प्रयोजन। याजक नरेश – यज्ञकर्ता राजा। चौकोर – जिसकी चारों भुजाएँ बराबर हों। आयताकार – जिस आकार की आमने-सामने की भुजाएँ बराबर हों। साज-सज्जा – सजावट। प्रावधान – व्यवस्था। अतराल – मध्य। अनधिकार – अधिकार रहित। अपराधबोध – गलती का अहसास। विशद – विशाल। इज़हार – प्रकट। मेज़बान – जिसके घर अतिथि आए हों। यजीकृत – सूचीबद्ध। मृद-भाड – मिट्टी के बर्तन। आईना – दर्पण। राजतत्र – राजा को सर्व अधिकारो देने वाली व्यवस्था। भव्य – विशाल। समृदध – संपन्न। आडबर – दिखावा। उदघाटित – प्रकट। उत्कीर्ण – खोदी हुई। सुघड़ – सुंदर। गुलकारी – कपड़ों पर चित्र अंकित करने की कला। साक्ष्य – प्रमाण। क्षार – नमक।

पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न

प्रश्न 1:
सिंधु-सभ्यता साधन-सपन्न थी, पर उसमें भव्यता का आडबर नहीं था। कैसे?
उत्तर –
सिंधु सभ्यता बहुत संपन्न सभ्यता थी। प्रत्येक तरह के साधन इस सभ्यता में थे। इतना होने के बाद भी इस सभ्यता में दिखावा नहीं था। कोई बनवावटीपन या आडंबर नहीं था। जो भी निर्माण इस सभ्यता के लोगों ने किया, वह सुनियोजित और मनोहारी था। निर्माण शैली साधारण होने के बाद भी दिखावे से कोसों दूर थे। जो वस्तु जिस रूप में सुंदर लग सकती थी, उसका निर्माण उसी ढंग से किया गया था। इसीलिए सिंधु सभ्यता में भव्यता थी, आडंबर नहीं।

प्रश्न 2:
“सिंधु-सभ्यता की खूबी उसका सौंदर्य-बोध हैं जो राज-पोषित या धर्म-पोषित न होकर समाज-पोषित था।” ऐसा क्यों कहा गया? 

अथवा

‘सिंधु-सभ्यता का सौंदर्य-बोध समाज-पोषित था।”-अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

अथवा

‘सिंधु-घाटी के लोगों में कला या सुरुचि का महत्व अधिक था”-उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
सिंधु-सभ्यता के लोगों में कला या सुरुचि का महत्व अधिक था। यहाँ प्राप्त नगर-नियोजन, धातु व पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति व पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुनिर्मित मुहरें, खिलौने, आभूषण तथा सुघड़ अक्षरों का लिपिरूप आदि सब कुछ इसे तकनीक-सिद्ध से अधिक कला-सिद्ध जाहिर करता है। यहाँ से कोई हथियार नहीं मिला। इस बात को लेकर विद्वानों का मानना है कि यहाँ अनुशासन जरूर था, परंतु सैन्य सभ्यता का नहीं। यहाँ पर धर्मतंत्र या राजतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाली वस्तुएँ-महल, उपासना-स्थल आदि-नहीं मिलतीं। यहाँ आम आदमी के काम आने वाली चीजों को सलीके से बनाया गया है। इन सारी चीजों से उसका सौंदर्य-बोध उभरता है। इसी आधार पर कहा जाता है कि सिंधु-सभ्यता का सौंदर्य-बोध समाज-पोषित था।

प्रश्न 3:
पुरातत्व के किन चिहनों के आधार पर आप यह कह सकते हैं कि-‘सिंधु-सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी?”

अथवा

‘सिंधु-सभ्यता ताकत से शासित होने की अपेक्षा समझ से अनुशासित सभ्यता थी”-अतीत में दबे पाँव के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर –
पुरातत्ववेत्ताओं ने जो भी खुदाई की और खोज की। उसमें उन्हें मिट्टी के बर्तन, सिक्के, मूर्तियाँ, पत्थर और लकड़ी के उपकरण मिले। इन चित्रों के फलस्वरूप यही बात सामने आई कि लोग समय के अनुरूप इन वस्तुओं का उपभोग करते थे। दूसरा उनकी नगर योजना भी उनकी समझ का पुख्ता प्रमाण है। आज की नगर योजना भी उनकी योजना के समकक्ष नहीं ठहरती। जो कुछ उन्होंने नगरों, गलियों, सड़कों को साफ़-सुथरा रखने की विधि अपनाई, वह उनकी समझ को ही दर्शाती है।

प्रश्न 4:
‘यह सच है कि यहाँ किसी अगन की टूटी-फूटी सीढ़ियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ अधूरी रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर हैं, वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झाँक रह हैं।” इस कथन के पीछ लखक का क्या आशय हैं?

अथवा

मुअनजो-दड़ो की सभ्यता पूर्ण विकसित सभ्यता थी, कैसे? पाठ के आधार पर उदाहरण देकर पुष्ट कीजिए।
उत्तर –
लेखक कहता है कि मुअनजो-दड़ो में सिंधु-सभ्यता के अवशेष बिखरे पड़े हैं। यहाँ के मकानों की सीढ़ियाँ उस कालखंड तथा उससे पूर्व का अहसास कराती हैं जब यह सभ्यता अपने चरम पर रही होगी। इतिहास बताता है कि यहाँ कभी पूरी आबादी रहती थी। यह सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है। यहाँ के अधूरे पायदानों पर खड़े होकर हम गर्व महसूस कर सकते हैं कि जिस समय दुनिया में ज्ञान रूपी सूर्योदय नहीं हुआ था, उस समय हमारे पास एक सुसंस्कृत व विकसित सभ्यता थी। इसमें महानगर भी थे। इनको विकसित होने में भी काफी समय लगा होगा। यह हमारे इतिहास को आँखों के सामने प्रत्यक्ष कर देता है। उस समय का ज्ञान, उनके द्वारा स्थापित मानदंड आज भी हमारे लिए अनुकरणीय हैं। तत्कालीन नगर-योजना को आज की नगरीय संस्कृति में प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5:
‘टूटे-फूटे खडहर, सभ्यता और सस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों का भी दस्तावेज होते हैं।”-इस कथन का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जब कोई सभ्यता या संस्कृति काल के ग्रास में समा जाए तो पीछे टूटे-फूटे खंडहर छोड़ जाती है। इन्हीं टूटे-फूटे खंडहरों की खोज के आधार पर अमुक सभ्यता और संस्कृति के बारे में जानने का प्रयास किया जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता थी किंतु वह भी एक दिन समाप्त हो गई। अपने पीछे छोड़ गई टूटी-फूटी इमारतों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता कहते हैं कि वह एक सुसंस्कृत और विकसित संस्कृति थी, उस समय का समाज उसमें रहने वाले लोग कैसे थे इन सभी के बारे में खंडहरों के अध्ययन से ही जाना जा सकता है। कोई भी खंडहर और नगर में मिले अन्य अवशेषों और चीज़ों के आधार पर उस युग के लोगों के आचार-व्यवहार के बारे में पता चल जाता है। उस समय के लोगों का खान-पान भी यही वस्तुएँ बता देती हैं। इसलिए कहा गया है कि टूटे-फूटे खंडहर सभ्यता और संस्कृति के इतिहास के साथ-साथ धड़कती जिंदगियों के अनछुए समयों का भी दस्तावेज होते हैं।

प्रश्न 6:
इस पाठ में एक ऐसे स्थान का वर्णन हैं जिसे बहुत कम लोगों ने देखा होगा, परंतु इससे आपके मन में उस नगर की एक तसवीर बनती है। किसी ऐस ऐतिहासिक स्थल, जिसको आपने नजदीक से देखा हो, का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर-
इस साल की गर्मियों की छुट्टयों में कक्षा के कुछ दोस्तों ने दिल्ली के लालकिले को देखने का कार्यक्रम बनाया। निर्धारित तिथि को हम छह दोस्त वहाँ गए। लालकिले को देखने के बाद मन में कल्पना हिलोरें मारने लगी। इसे देखकर मुगल सत्ता के मजबूत आधार का पता चलता है। इतने विशाल किले का निर्माण शाहजहाँ ने करवाया जिस पर अत्यधिक धन खर्च हुआ। यह निर्माण उस समय के शांत शासन व समृद्ध के युग का परिचय कराता है। इसका निर्माण लाल पत्थरों से करवाया गया। किले के अंदर अनेक महल हैं। दीवान-ए-आम से लेकर दीवान-ए-खास तक को देखकर मुगल बादशाह के दरबार का दृश्य सामने आता है। यह किला मुगल प्रभुसत्ता का परिचायक था। आज भी इसका ऐतिहासिक महत्व है। यहाँ स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री तिरंगा झंडा फ़हराते हैं। यह मेरे जीवन के सुखद अनुभवों में से एक है।

प्रश्न 7:
नदी, कुएँ स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए लखक पाठकों स प्रश्न पूछता है कि क्या हम सिंधु घाटी सभ्यता को जल-सस्कृति कह सकते हैं? आपका जवाब लखक के पक्ष में है या विपक्ष में? तक दें।

अथवा

क्या सिंधु वाडी सभ्यता कां जल-संस्कृति कह सकते हैं? कारण सहित उतार दीजिए।
उत्तर- 
यह बिलकुल सत्य है कि नदी, कुएँ, स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था सिंधु घाटी की विशेष पहचान रही है। लेखक अंत में पाठकों से यह प्रश्न पूछता है कि क्या हम सिंधु घाटी सभ्यता को जल-संस्कृति कह सकते हैं तो मैं यही कहूँगा/कहूँगी कि उस सभ्यता की नकल ही हमने की है। उस सभ्यता का कोई मुकाबला नहीं। आज चंडीगढ़, ब्रासीलिया और इसलामाबाद की नगर योजना पर सिंधु सभ्यता का प्रभाव दिखाई देता है लेकिन यह प्रभाव गहरा नहीं है। सिंधु घाटी के लोगों ने अपनी समझ और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। जबकि इन शहरों में समझ तो दिखाई देता है लेकिन दूरदर्शिता नहीं। इसीलिए मैं सिंधु घाटी की सभ्यता को नव्य-संस्कृति के लिए एक आदर्श कहूँगा/कहूँगी।

प्रश्न 8:
सिंधु घाटी सभ्यता का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिला है। सिर्फ अवशेषों के आधार पर ही धारणा बनाई गई है। इस लेख में मुअनजो-दड़ो के बारे में जो धारणा व्यक्त की गई है क्या आपके मन में इससे कोई भिन्न धारणा या भाव भी पैदा होता है? इन सभावनाओं पर कक्षा में समूह-चर्चा करें।

अथवा

“सिंधु मार्टा की सभ्यता लेवल अवशषां‘ के आधार पर बनाई गई एक धारणा जा “-इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने विचार प्रकट र्काजिए।
उत्तर- 
सिंधु धारी सभ्यता के विषय में जानकारी उष्ण, अनजौ–दहो व अन्य क्षेत्रों की खुदाई से मिले अवशेषों से मिलती है। यहाँ नगर–योजना, मकान, खेती, कला, दुजा आदि के अवशेष मिले हैँ। इनके आधार पर ही एक धारणा बनाई गई है कि यह सभ्यता अत्यंत विकसित थी। अनुमान लगाए गए कि यहाँ की नगर–योजना आज की शहरी योजना से अधिक विकसित थी, यहाँ पर मरुभूमि नहीं थी, कृषि उन्नत दशा में थी, पशुपालन व व्यापार भी विकसित था। समाज के दो वर्ग “उच्च वर्ग‘ व “निग्न वर्म‘ को परिकल्पना की गई आदि। वस्तुत: ये सब अनुमान हैं। मुअनजोट्वेदड्रो के बारे में बनी अवधारणा के विषय में मेरा मत निम्नलिखित है –

  1. इस क्षेत्र से जो लिपि मिली है, वह चित्रलिपि है। हरने आज तक पढा नहीं जा सका है। अता यह लिपि अपने में रहस्य छिपाए हुए है।
  2. लिपि पढे न जने पर अवशेष ही किसी सभ्यता व संस्कृति के बारे में बताते हैं। इतनी पुरानी सभ्यता के तमाम चिहून सुरक्षित नहीं रह सकते। इस क्षेत्र की जलवायु व मजबूत निर्माण–लली के कारण काफी अवशेष ठीक दशा में मिले हैं। उन्हें के आधार पर कर्ण सभ्यता व संस्कृति को परिकल्पना की गई है।

अन्य हल प्रश्न

I. बोधात्मक प्रशन

प्रश्न 1:
अजायबघर में रखे सिंधु-सभ्यता के पुरातत्व के अवशेषों से किसका महत्व सिद्ध होता हैं-कला का या ताकत का?
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो के अजायबघर में सिंधु-सभ्यता के पुरातत्व के अवशेष रखे गए हैं। यहाँ पर काला पड़ गया गेहूँ, ताँबे और काँसे के बर्तन, मुहरें, वाद्य, चाक पर बने विशाल मृद्-भांड, चौपड़ की गोटियाँ, मिट्टी की बैलगाड़ी, पत्थर के औजार, मिट्टी के कंगन आदि रखे गए हैं। यहाँ की चीजों को देखने से पता चलता है कि यहाँ औजार तो हैं, पर हथियार नहीं। समूची सिंधु-सभ्यता में हथियार उस तरह के नहीं मिले हैं जैसे किसी राजतंत्र में होते हैं। यहाँ पर प्रभुत्व या दिखावे के तेवर नदारद हैं। इससे यह पता चलता है कि इस सभ्यता में कला का महत्व अधिक था, न कि ताकत का।

प्रश्न 2:
मुअनजो-दड़ो की बड़ी बस्ती पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर –
लेखक ने बताया कि बड़ी बस्ती में घरों की दीवारें ऊँची व मोटी हैं। मोटी दीवार का अर्थ यह है कि उस मंजिल भी होगी। कुछ दीवारों में छेद हैं जो संकेत देते हैं कि दूसरी मंजिल उठाने के लिए शायद यह जगह हो। सभी घर एक ही आकार की पक्की ईटों से बने हैं। यहाँ पत्थरों का प्रयोग मामूली है। कहीं-कहीं को अनगढ़ पत्थरों से ढँका गया है।

प्रश्न 3:
पुरातत्ववेत्ताओं ने किस भवन को ‘कॉलेज ऑफ प्रीस्ट्स’ कहा है और क्यों?
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो के महाकुंड के उत्तर-पूर्व में एक लंबी इमारत के अवशेष हैं। इसके बीचोंबीच खुला बड़ा दालान है। इसमें तीन तरफ़ बरामदे हैं। कभी इनके साथ छोटे-छोटे कमरे रहे होंगे। पुरातत्व के जानकार कहते हैं कि धार्मिक अनुष्ठानों में ज्ञानशालाएँ सटी हुई होती थीं। इस नजरिए से इसे ‘कॉलेज ऑफ़ प्रीस्ट्स’ माना जा सकता है।

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प्रश्न 4:
मुअनजो-दड़ो और चडीगढ़ के नगरशिल्प में क्या समानता पाई जाती हैं?
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो और चंडीगढ़ के नगरशिल्प में महत्वपूर्ण समानता है। दोनों नगरों में सड़कों के दोनों ओर घर हैं, परंतु किसी भी घर का दरवाजा सड़क पर नहीं । सभी के दरवाजे अंदर गलियों में हैं। दोनों नगरों में घर जाने के लिए मुख्य सड़क से सेक्टर में जाना पड़ता है, फिर घर की गली में प्रवेश करके घर में पहुँच सकते हैं।

प्रश्न 5:
‘मुअनजो-दड़ो में रँगरेज का कारखाना भी था।”-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो में एक ऐसा भवन मिला है जिसकी जमीन में ईटों के गोल गड्ढे उभरे हुए हैं। अनुमान है कि इनमें रँगाई के बड़े बर्तन रखे जाते थे। दो कतारों में सोलह छोटे एक-मंजिला मकान हैं। एक कतार मुख्य सड़क पर है, दूसरी पीछे की छोटी सड़क की तरफ़। सबमें दो-दो कमरे हैं। यहाँ सभी घरों में स्नानघर हैं। बाहर बस्ती में कुएँ सामूहिक प्रयोग के लिए हैं। शायद ये कर्मचारियों के लिए रहे होंगे।

प्रश्न 6:
मुअनजो-दड़ो को देखते-देखते लेखक को किसकी याद आ गई और क्यों?
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो के वीरान शहर को देखते-देखते लेखक को जैसलमेर के गाँव कुलधरा की याद आ गई। यह पीले पत्थर के घरों वाला सुंदर गाँव है। यह गाँव काफी समय से वीरान है। कोई डेढ़ सौ साल पहले राजा से तकरार पर गाँव के स्वाभिमानी लोग रातों-रात अपना घर छोड़कर चले गए। उस सयम से मकान खंडहर हो गए, पर ढहे नहीं हैं। वे आज भी अपने निवासियों की प्रतीक्षा में खड़े लगते हैं।

प्रश्न 7:
मुअनजो-दड़ो की सभ्यता का अभी इतना प्रचार क्यों नहीं हुआ हैं?
उत्तर –
मुअनजो–दड्रॉ की सभ्यता के प्यार न होने के निम्नलिखित कारण है–

  1. इस सभ्यता में भव्यता का आख्या नहीं है।
  2. यह सभ्यता पिछली शताब्दी में ही दुनिया के सामने आई है।
  3. इसकी लिपि अभी तक मही नहीं जा सकी है। अता बहुत सारे रहस्यों पर से परदा नहीं उठा है।

प्रश्न 8:
सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़ शहर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना दशकों को अभिभूत क्यों करती है? स्पष्ट कीजिए।

अथवा

‘मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की सक्टर-माका कॉलोनियों के नीरस नियोजन की अपेक्षा ज्यादा रचनात्मक है। ”-टिप्पणी कीजिए।
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना बेमिसाल है। यहाँ की सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी हैं। शहर से जुड़ी हर चीज अपने स्थान पर है। मुख्य सड़क की चौड़ाई तैतीस फुट है। सड़क के दोनों ओर घर हैं, परंतु घरों के दरवाजे गलियों में हैं। सड़क के दोनों तरफ ढँकी हुई नालियाँ हैं। गलियाँ छोटी हैं। शहर से पानी के लिए कुंओं का प्रबंध भी है। आज की सेक्टर-माक कालोनियों में जीवन की गतिशीलता नहीं होती। नया नियोजन शहर की विकसित नहीं होने देता। मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना दर्शकों को अभिभूत करती है।

‘अतीत में दबे पाँव’ के लखक ने मुअनजो-दड़ो की सभ्यता को किस आधार पर ‘लो-प्रोफाइल सभ्यता’ कहा है?

अथवा

प्रश्न 9:
मुअनजो-दड़ो की सभ्यता को ‘लों-प्रोफाइल सभ्यता’ क्यों कहा जाता हैं?
उत्तर –
लेखक ने मुअनजो-दड़ो की सभ्यता को ‘लो-प्रोफ़ाइल सभ्यता’ कहा है। इसके निम्नलिखित आधार हैं –

  1. यांत्रिक प्रतिकने वाले मल, धर्मक ताकता दिवाने वाले पूना स्ल मूर्तयों व पििमई नहीं मिले हैं।
  2. यहाँ से मिली राजा की मूर्ति पर जो मुकुट है, उसका आकार बहुत छोटा है।
  3. यहाँ से मिली नावें बहुत छोटे आकार की हैं।

प्रश्न 10:
‘मुअनजो-दड़ो’ में बड़े घरों में भी छोटे-छोटे कमरे होने का क्या कारण हो सकता हैं?
उत्तर – 
‘अतीत में दबे पाँव’ के आधार पर स्पष्ट कीजिए। पुलड मेंबे-बंधों मेंभ छटे छटेकर पाएगएहैं.य हैन कवियहै इसाकेनितिकणह सकते हैं

  1. शहर की आबादी काफी अधिक रही होगी।
  2. ग्रेगरी पोसेल का मानना है कि निचली मंजिल में नौकर-चाकर रहते होंगे।

प्रश्न 11:
“मुअनजो-दड़ो में प्राप्त वस्तुओं में औजार तो हैं, पर हथियार नहीं।” इससे सिंधु-सभ्यता के बारे में आपकी क्या धारणा बनती हैं?
उत्तर – 
मुअनजो-दड़ो में अनेक वस्तुओं के अवशेष मिले हैं, परंतु उसमें किसी प्रकार के हथियार नहीं मिले। इससे यह धारणा बनती है कि इस सभ्यता में राजतंत्र या धर्मतंत्र नहीं था। यह समाज-अनुशासित सभ्यता थी जो यहाँ की नगर-योजना, वास्तु-शिल्प, मुहर-ठप्पों, पानी या साफ़-सफ़ाई जैसी सामाजिक एकरूपता को कायम रखे हुए थी।

प्रश्न 12:
कैसे कहा जा सकता है कि मुअनजो-दड़ो शहर ताम्रकाल के शहरों में सबसे बड़ा और उत्कृष्ट था?
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो की खुदाई के समय यहाँ नगर-योजना, मकान, खेती, कला, औजार आदि के अवशेष मिले हैं। इनके आधार पर ही एक धारणा बनाई गई कि यह सभ्यता अत्यंत विकसित थी। अनुमान लगाए गए कि यहाँ की नगर-योजना आज की शहरी योजना से अधिक विकसित थी, यहाँ पर मरुभूमि नहीं थी, कृषि उन्नत दशा में थी, पशुपालन व व्यापार भी विकसित था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुअनजो-दड़ो शहर ताम्रकाल के शहरों में सबसे बड़ा और उत्कृष्ट था।

प्रश्न 13:
महाकुंड में अशुद्ध जल को रोकने की क्या व्यवस्था थी? ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर – 
महाकुंड में जल का रिसाव रोकने तथा अशुद्ध जल से बचाव के लिए कुंड के तल व दीवारों पर चूने व चिरोड़ी के गारे का प्रयोग किया गया था। जल के लिए एक तरफ कुआँ है। कुंड से जल को बाहर बहाने के लिए नालियाँ हैं। ये पक्की ईटों से बनी हैं तथा ईटों से ढकी भी हैं। जल-निकासी का ऐसा सुव्यवस्थित बंदोबस्त इससे पहले के इतिहास में नहीं मिलता।

II. निबंधात्मक प्रश्न

प्रश्न 1:
‘सिंधु-सभ्यता में खेती का उन्नत रूप भी देखने को मिलता है’ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
सिंधु-सभ्यता की खोज की शुरुआत में यह माना जा रहा था कि इस घाटी के लोग अन्न नहीं उपजाते थे। वे अनाज संबंधी जरूरतें आयात से पूरा करते थे, परंतु नयी खोजों से पता चला है कि यहाँ उन्नत खेती होती थी।
अब कुछ विद्वान इसे मूलत: खेतिहर व पशुपालक सभ्यता मानते हैं। खेती में ताँबे व पत्थर के उपकरण प्रयोग में लाए जाते थे। यहाँ रबी की फसल में गेहूँ, कपास, जौ, सरसों व चने की खेती होती थी। इनके सबूत भी मिले हैं। कुछ दिनों का विवार है कि यह ज्वार, बाजा और साग को उज भी हती थी। लोग खज्र खल्वे और अंगूर उगाते थे।

प्रश्न 2:
लेखक ने मुअनजो-दड़ों शहर के टूटने या उजड़ने के बारे में क्या कल्पना की हैं?
उत्तर –
लेखक का मानना है कि सिंधु घाटी सभ्यता में कहीं भी नहरों के प्रमाण नहीं मिले हैं। लोग कुंओं के जल का प्रयोग करते थे। वर्षा भी पर्याप्त होती थी क्योंकि यहाँ खेती के भी खूब प्रमाण मिले हैं। लेखक का अनुमान है कि धीरे-धीरे वर्षा कम होने लगी होगी तथा यहाँ रेगिस्तान बनना प्रारंभ हुआ होगा। इसके साथ ही भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग से जल की कमी होनी शुरू हो गई होगी। सिंधु-सभ्यता में जल का प्रबंधन व उपयोग बहुत समझदारी से किया जाता था। जल की निकासी, सामूहिक स्नानागार आदि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ के लोग जल का प्रचुर मात्रा में उपयोग करते रहे होंगे। प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण जल की कमी हो गई और सिंधु घाटी सभ्यता उजड़ गई।

प्रश्न 3:
सिंधु-सभ्यता में नगर-नियोजन से भी कहीं ज्यादा सौंदर्य-बोध के दर्शन होते हैं। ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ में दिए गए तथ्यों के आधार पर जानकारी दीजिए।
उत्तर –
यह कहा जा सकता है कि खुदाई में प्राप्त धातु और पत्थर की मूर्तियों, मृद्-भांड, उन पर चित्रित मनुष्य, वनस्पति और पशु-पक्षियों की छवियाँ, सुंदर मुहरें, उन पर बारीकी से उत्कीर्ण आकृतियाँ, खिलौने, केश-विन्यास और आभूषण आदि उस समय के लोगों के सौंदर्य-बोध के परिचायक हैं। इन सबसे कहीं ज्यादा सौंदर्य-बोध कराती है वहाँ की सुघड़ लिपि। यदि गहराई से सोचें तो वहाँ की प्रत्येक सुघड़ योजना भी तो सौंदर्य-बोध का ही एक प्रमाण प्रस्तुत करती है। ढँकी हुई पक्की नालियाँ बनाने के पीछे गंदगी से बचाव का जो उद्देश्य था वह भी तो मूल रूप से स्वच्छता और सौंदर्य का ही बोध कराता है। आवास की सुंदर व्यवस्था हो या अन्न भंडारण, सभी के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से सौंदर्य-बोध काम कर रहा है। अत: यह स्पष्ट है कि सिंधु-सभ्यता में किसी भी अन्य व्यवस्था से ऊपर सौंदर्य-बोध ही था।

प्रश्न 4:
‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर शीर्षक की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर –
‘अतीत में दबे पाँव’ लेखक के वे अनुभव हैं, जो उन्हें सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों को देखते समय हुए थे। इस पाठ में अतीत अर्थात भूतकाल में बसे सुंदर सुनियोजित नगर में प्रवेश करके लेखक वहाँ की एक-एक चीज से अपना परिचय बढ़ाता है। उस सभ्यता के अतीत में झाँककर वहाँ के निवासियों और क्रियाकलापों को अनुभव करता है। वहाँ की एक-एक स्थूल चीज से मुखातिब होता हुआ लेखक चकित रह जाता है। वे लोग कैसे रहते थे? यह अनुमान आश्चर्यजनक है। वहाँ की सड़कें, नालियाँ, स्तूप, सभागार, अन्न भंडार, विशाल स्नानागार, कुएँ, कुंड और अनुष्ठान गृह आदि के अतिरिक्त मकानों की सुव्यवस्था देखकर लेखक महसूस करता है कि जैसे अब भी वे लोग वहाँ हैं। उसे सड़क पर जाती हुई बैलगाड़ी से रुनझुन की ध्वनि सुनाई देती है। किसी खंडहर में प्रवेश करते हुए उसे अतीत के निवासियों की उपस्थिति महसूस होती है। रसोईघर की खिड़की से झाँकने पर उसे वहाँ पक रहे भोजन की गंध भी आती है। यदि इन लोगों की सभ्यता नष्ट न हुई होती तो उनके पाँव प्रगति के पथ पर निरंतर बढ़ रहे होते और आज भारतीय उपमहाद्वीप महाशक्ति बन चुका होता। मगर दुर्भाग्य से ये प्रगति की ओर बढ़ रहे पाँव अतीत में ही दबकर रह गए। इसलिए ‘अतीत में दबे पाँव’ शीर्षक पूर्णत: सार्थक और सटीक है।

प्रश्न 5:
‘मुअनजो-दड़ो के उत्खनन से प्राप्त जानकारियों के आधार पर सिंधु-सभ्यता की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो के उत्खनन से प्राप्त जानकारियों के आधार पर सिंधु-सभ्यता की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं –

  1. सिंधु-सभ्यता में सुनियोजित ढंग से नगर बसाए गए थे।
  2. नगरों में निकासी की उत्कृष्ट प्रणाली थी।
  3. मुख्य सड़कें चौड़ी तथा गलियाँ अपेक्षाकृत सँकरी होती थीं।
  4. मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर नहीं खुलते थे।
  5. कृषि भी व्यवसाय था।
  6. यातायात के साधन के रूप में बैलगाड़ियाँ तथा नावें थीं।
  7. हर जगह एक ही आकार की पक्की ईटों का प्रयोग किया गया है।
  8. हर नगर में अन्न भंडारगृह, स्नानगृह आदि थे।
  9. गहने, मुद्रा आदि से संपन्नता का पता चलता है।

प्रश्न 6:
‘पुरातत्व के निष्प्राण चिहनों के आधार पर युग-विशेष के आबाद घरों लोगों और उनकी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक गतिविधियों का पुख़्ता अनुमान किया जा सकता है।” अतीत में दबे पाँव ‘ पाठ के आधार पर टिप्पणी कीजिए।

अथवा

‘अतीत में दबे पाँव” के आधार पर उस युग की सभ्यता और सस्कृति के विषय में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर –
यह बात सही है कि पुरातत्व के निष्प्राण चिहनों के आधार पर युग-विशेष के आबाद घरों, लोगों और उनकी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक गतिविधियों का पुख्ता अनुमान किया जा सकता है। मुअनजो-दड़ो में सड़कें, मकान, स्नानागार, कोठार, कुएँ आदि के अवशेष पाए गए हैं। ये बताते हैं कि ये बस्तियाँ सुनियोजित तरीके से बसाई गई थीं। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों व उन पर की गई कलाकारी से उस समय के विश्वासों का पता चलता है। आभूषण, सुंदर लिपि, आकृतियाँ आदि तत्कालीन समाज के सौंदर्य-बोध को व्यक्त करते हैं। सिंधु-सभ्यता से किसी प्रकार का कोई हथियार नहीं मिला। इससे पता चलता है कि यहाँ राजतंत्र या धर्मतंत्र न होकर अनुशासन तंत्र था।

प्रश्न 7:
‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ का प्रतिपाद्य बताइए।
उत्तर –
यह पाठ ‘यात्रा-वृत्तांत’ और ‘रिपोर्ट’ का मिला-जुला रूप है। यह पाठ विश्व-फलक पर घटित सभ्यता की सबसे प्राचीन घटना को उतने ही सुनियोजित ढंग से पुनर्जीवित करता है, जितने सुनियोजित ढंग से उसके दो महान नगर-मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा-बसे थे। लेखक ने टीलों, स्नानागारों, मृद्-भांडों, कुंओं-तालाबों, मकानों व मार्गों से प्राप्त पुरातत्वों में मानव-संस्कृति की उस समझदार-भावात्मक घटना को बड़े इत्मीनान से खोज-खोज कर हमें दिखाया है जिससे हम इतिहास की सपाट वर्णनात्मकता से ग्रस्त होने की जगह इतिहास-बोध से तर होते हैं। सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े शहर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना दर्शकों को अभिभूत करती है। वह आज की सेक्टर-माका कॉलोनियों के नीरस नियोजन की अपेक्षा ज्यादा रचनात्मक थी क्योंकि उसकी बसावट शहर के खुद विकसित होने का अवकाश भी छोड़कर चलती थी। पुरातत्व के निष्प्राण पड़े चिहनों से एक जमाने में आबाद घरों, लोगों और उनकी सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक व आर्थिक गतिविधियों का पुख्ता अनुमान किया जा सकता है। वह सभ्यता ताकत के बल पर शासित होने की जगह आपसी समझ से अनुशासित थी। उसमें भव्यता थी, पर आडंबर नहीं था। उसकी खूबी उसका सौंदर्य-बोध था जो राजपोषित या धर्मपोषित न होकर समाजपोषित था। अतीत की ऐसी कहानियों के स्मारक चिहनों को आधुनिक व्यवस्था के विकास-अभियानों की भेंट चढ़ाते जाना भी लेखक को कचोटता है।

प्रश्न 8:
पर्यटक मुअनजो-दड़ों में क्या-क्या देख सकते हैं? ‘अतीत के दबे पाँव’ पाठ के आधार पर किन्हीं तीन दृश्यों का परिचय दीजिए।
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो में पर्यटक निम्नलिखित स्थान देख सकते हैं

  1. बौदध स्तूप – मुअनजो-दड़ो के सबसे ऊँचे चबूतरे पर बड़ा बौद्ध स्तूप है। 1992 ई. में राखलदास बनर्जी ने इसी बौद्ध स्तूप की खुदाई करते हुए सिंधु-सभ्यता के बारे में जाना। इस चबूतरे को विद्वान ‘गढ़’ कहते हैं।
  2. विशाल स्नानागार व कुंड – यहाँ सामूहिक स्नानागार के लिए एक विशाल कुंड पाया गया है। एक पंक्ति में आठ स्नानघर हैं जिनमें किसी के भी दरवाजे एक-दूसरे के सामने नहीं खुलते। कुंड के तल और दीवारों की ईटों के बीच चूने और चिराड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ जिससे कुंड का पानी रिस न सके और बाहर का अशुद्ध पानी कुंड में न आए।
  3. अजायबघर – मुअनजो-दड़ो में अजायबघर बनाया गया है जो छोटा है। यहाँ पर काला पड़ गया गेहूँ, मुहरें, चौपड़ की गोटियाँ, माप-तौल के पत्थर, ताँबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी आदि रखे गए हैं। यहाँ औजार तो हैं, परंतु हथियार नहीं।

III. मूल्यपरक प्रश्न

प्रश्न 1:
निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित मूल्यपरक प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए –

(अ) अभी भी मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा प्राचीन भारत के ही नहीं, दुनिया के दो सबसे पुराने नियोजित शहर माने जाते हैं। ये सिंधु घाटी सभ्यता के परवर्ती यानी परिपक्व दौर के शहर हैं। खुदाई में और शहर भी मिले हैं। लेकिन मुअनजो-द. डो ताम्र काल के शहरों में सबसे बड़ा है। वह सबसे उत्कृष्ट भी है। व्यापक खुदाई यहीं पर संभव हुई। बड़ी तादाद में इमारतें, सड़कें, धातु-पत्थर की मूर्तियाँ, चाक पर बने चित्रित भांडे, मुहरें, साजो-सामान और खिलौने आदि मिले। सभ्यता का अध्ययन संभव हुआ। उधर सैकड़ों मील दूर हड़प्पा के ज्यादातर साक्ष्य रेल लाइन बिछने के दौरान ‘विकास की भेंट चढ़ गए।’
मुअनजो-दड़ो के बारे में धारणा है कि अपने दौर में वह घाटी की सभ्यता का केंद्र रहा होगा। यानी एक तरह की राजधानी। माना जाता है यह शहर दो सौ हेक्टर क्षेत्र में फैला था। आबादी कोई पचासी हजार थी। जाहिर है, पाँच हजार साल पहले यह आज के ‘महानगर’ की परिभाषा को भी लाँघता होगा।
प्रश्न:

  1. यदि मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा में भवन तो मिलते पर मुहरें खिलौने, मूर्तियाँ आदि न मिलतीं तो क्या होता? अपने विचार लिखिए।
  2. ‘हड़प्पा के अधिकतर साक्ष्य विकास की भेंट चढ़ गए।” -आपके विचार से विकास किस सीमा तक किया जाना चाहिए और क्यों?
  3. ‘पाँच हजार साल पहल यह आज के ‘महानगर’ की परिभाषा को भी लाँघता होगा।”-का अर्थ क्या है?
    आप अपनी धरोहरों और प्राचीन इमारतों को सुरक्षित रखने के लिए क्या-क्या करेंगे?

उत्तर –

  1. यदि मुअनजो-दड़ो और हड़प्पा की खुदाई में मुहरें, खिलौने, मूर्तियाँ आदि न मिलतीं तो भवन-निर्माण कला तथा घरों की व्यवस्था के अलावा मूर्तिकला, चित्रकला और अन्य शिल्पों की जानकारी न मिल पाती।
  2. मनुष्य के सभ्य होने का मापदंड विकास माना जाता है। मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने तथा सभ्यता की ओर कदम बढ़ाने के लिए संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग करता है जिससे दूसरा पक्ष प्रभावित होता है। मेरे विचार से विकास उस सीमा तक किया जाना चाहिए, जिससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में कोई विनाश न हो।
  3. उक्त पंक्ति का अर्थ है-अत्यंत उन्नत रहा होगा। मैं अपनी धरोहरों और प्राचीन इमारतों को सुरक्षित रखने के लिए-
    1. आस-पास सफ़ाई रखेंगा।
    2. प्रदूषण फैलाने वाले कारकों को नियंत्रित करूंगा।
    3. लोगों में जागरूकता फैलाऊँगा।
    4. सरकार का ध्यान इनकी ओर आकर्षित कराने का प्रयास करूंगा।

(ब) नगर-नियोजन की मुअनजो-दड़ो अनूठी मिसाल है। इस कथन का मतलब आप बड़े चबूतरे से नीचे की तरफ़ देखते हुए सहज ही भाँप सकते हैं। इमारतें भले खंडहरों में बदल चुकी हों मगर ‘शहर’ की सड़कों और गलियों के विस्तार को स्पष्ट करने के लिए ये खंडहर काफ़ी हैं। यहाँ की कमोबेश सारी सड़कें सीधी हैं या फिर आड़ी। आज वास्तुकार इसे ‘ग्रिड प्लान’ कहते हैं। आज की सेक्टर-माका कॉलोनियों में हमें आड़ा-सीधा ‘नियोजन’ बहुत मिलता है। लेकिन वह रहन-सहन को नीरस बनाता है। शहरों में नियोजन के नाम पर भी हमें अराजकता ज्यादा हाथ लगती है। ब्रासीलिया या चंडीगढ़ और इस्लामाबाद ‘ग्रिड” शैली के शहर हैं जो आधुनिक नगर-नियोजन के प्रतिमान ठहराए जाते हैं, लेकिन उनकी बसावट शहर के खुद विकसने का कितना अवकाश छोड़ती है इस पर बहुत शंका प्रकट की जाती है। मुअनजो-दड़ो की साक्षर सभ्यता एक सुसंस्कृत समाज की स्थापना थी, लेकिन उसमें नगर-नियोजन और वास्तु कला की आखिर कितनी भूमिका थी?
प्रश्न:

  1. यदि किसी शहर में मुअनजो-दड़ो का नगर-नियोजन अपनाया जाए तो वहाँ के रहन-सहन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?  अपने विचार लिखिए।
  2. नगर-नियोजन में आप किन-किन बातों का ध्यान रखेंगे और क्यों?
  3. आपके विचार से किसी सभ्यता की उन्नति में नगर-नियोजन और वास्तु-कला की क्या भूमिका होती होगी?
    सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

  1. यदि किसी शहर में मुअनजो-दड़ो का नगर-नियोजन अपनाया जाए तो वहाँ का रहन-सहन उच्चकोटि का होगा और सड़क, मकान, गलियाँ सब कुछ व्यवस्थित होंगी।
  2. किसी नगर के नियोजन में हम सड़कों, गलियों और भवनों का विशेष ध्यान रखेंगे। सड़कों और गलियों को चौड़ा तथा सीधा रखेंगे। सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटेंगी। भवन सीधी पंक्तियों में बनाने का प्रयास करूंगा। सब कुछ ग्रिड प्लान के अनुसार होगा।
  3. मेरे विचार से किसी सभ्यता की उन्नति में नगर-नियोजन और वास्तु-कला का विशेष योगदान होता है। जिस सभ्यता में नगर-नियोजन जितना सुनियोजित और सुंदर होता है वह उतनी ही उन्नत मानी जाती है। मुअनजो-दड़ो की इमारतें, सड़कें और गलियाँ इसका जीवंत प्रमाण हैं। इन्हीं के कारण इसे ‘साक्षर सभ्यता’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 2:
मुअनजो-दड़ो सभ्यता में औजार तो मिले हैं, पर हथियार नहीं। यह देखकर आपको कैसा लगा? मनुष्य के लिए हथियारों को आप कितना महत्वपूर्ण समझते हैं, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
मुअनजो-दड़ो सभ्यता के अजायबघर में जो अवशेष रखे हैं, उनमें औजार बहुतायत मात्रा में हैं, पर हथियार नहीं। इस सभ्यता में उस तरह हथियार नहीं मिलते हैं, जैसा किसी राजतंत्र में मिलते हैं। दूसरी जगहों पर राजतंत्र या । धर्मतंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले विभिन्न उपकरण और वस्तुएँ मिलती हैं। इन वस्तुओं में महल, उपासना स्थल, मूर्तियाँ, पिरामिड आदि के अलावा विभिन्न प्रकार के हथियार मिलते हैं, परंतु इस सभ्यता में हथियारों की जगह औजारों को देखकर लगा कि मनुष्य ने अपने जीने के लिए पहले औजार बनाए।
ये औजार उसकी आजीविका चलाने में मददगार सिद्ध होते रहे होंगे। मुअनजो-दड़ो में हथियारों को न देखकर अच्छा लगा क्योंकि मनुष्य ने अपने विनाश के साधन नहीं बनाए थे। इन हथियारों को देखकर मन में युद्ध, मार-काट, लड़ाई-झगड़े आदि के दृश्य साकार हो उठते हैं। इनका प्रयोग करने वालों के मन में मानवता के लक्षण कम, हैवानियत के लक्षण अधिक होने की कल्पना उभरने लगती है। मनुष्य के लिए हथियारों का प्रयोग वहीं तक आवश्यक है, जब तक उनका प्रयोग वह आत्मरक्षा के लिए करता है। यदि मनुष्य इनका प्रयोग दूसरों को दुख पहुँचाने के लिए करता है तो हथियारों का प्रयोग मानवता के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। मनुष्य के जीवन में हथियारों की आवश्यकता न पड़े तो बेहतर है। हथियारों का प्रयोग करते समय मनुष्य मनुष्य नहीं रहता, वह पशु बन जाता है।

प्रश्न 3:
ऐतिहासिक महत्त्व और पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थानों यर कुछ समस्याएँ उठ खडी होती हैं जो इनके अस्तित्व के लिए खतरा है। ऐसी किन्हीं दो मुख्य समस्याओं का उल्लेख करते हुए उनके निवारण के उपाय भी सुझाहए।
उत्तर –
ऐतिहासिक महत्त्व और पुरातात्विक दृष्टि से महत्त्व रखने वाले स्थानों का संबंध हमारी सभ्यता और संस्कृति से होता है। इन स्थानों पर उपलब्ध वस्तुएँ हमारी विरासत या धरोहर का अंग होती हैं। ये वस्तुएँ आने वाली पीढी की तत्कालीन सभ्यता से परिचित कराती हैं। यहाँ विविध प्रकार को बहुमूल्य वस्तुएँ भी होती है जो तीनों के लिए आकर्षण का केद्र होती हैं। इनमें सोने…चाँदी के सिक्के, मूर्तियाँ, आभूषण तथा तत्कालीन लोगों परा प्रयोग किए जाने वाले आभूषण, रत्मजहित वस्तुएँ या अन्य महँगी धातुओं से बनी वस्तुएँ होती है जो उस समय को समृदूधि की कहानी कहती हैं। मैरी दृष्टि में इन स्थलों पर दो मुख्य समस्याएँ उत्पन्न दुई हैं…एक है चौरी की और दूसरी उन स्थानों पर अतिक्रमण और अवैध कब्जी की। ये दोनों ही समस्याएँ इन स्थानों के अस्तित्व के लिए खतरा सिदूध हुई हैं। लोगों का यह नैतिक दायित्व होना चाहिए कि वे इनकी रक्षा करें। जिन लोगों को इनकी रक्षा का दायित्व सौंपा गया है, उनकी जिम्मेदारी तो और भी बढ़‘जाती है। दुर्भाग्य से ऐसे लोग भी चौरी की घटनाओं में सरित पाए जाते हैं। वे निजी स्वार्थ और लालच के कारण अपना नैतिक दायित्व एवं कर्तव्य भूल जाते हैं। इसी प्रकार लोग उन स्थानों के आस–पास अस्थायी या स्थायी घर बनाकर कब्जे करने लगे है जो उनके सौदर्य पर ग्रहण है। यह कार्य सुरक्षा अधिकारियों क्री मिली–भगत से औरे–धीरे होता है और बाद में सीमा मार कर जाता है।
ऐसे स्थानों की सुरक्षा के लिए सरकार को सुरक्षा–व्यवस्था कडी करनी चाहिए तथा लोगों को नैतिक सस्कार दिए जाने चाहिए। इसके अलावा इन घटनाओं में संलिप्त लोगों के पकड जने पर कहैं दड की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि ऐसी घटना क्रो पुनरावृस्ति होने से बचा जा सके।

प्रश्न 4:
सिंधु घाटी की सभ्यता को जिल–सभ्यता‘ काने का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए बताइए कि वर्त्तमान ये जल–संरक्षण क्यों आवश्यक हो गया है और इसके लिए उपाय भी सुझाइए।
उत्तर –
सिंधु घाटी की सभ्यता में नदी, कुएँ, स्नानागार और तालाब तो बहुतायत मात्रा में मिले हो है, वहाँ जल–निकासी को उत्तम व्यवस्था के प्रमाण भी मिले हैं। इस कारण इस सभ्यता को ‘जल–सभ्यता‘ कहना अनुचित नहीं है। इसके अलावा यह सभ्यता नदी के किनारे बसी थी। मुअन्यागे–दड़े के निकट सिंधु नदी बहती थी। यहाँ पीने के जल का मुख्य खोत कुएँ थे। यहाँ मिले कुओं की सख्या सात भी को अधिक है। मुअनजो–दहो में एक पंक्ति में आठ स्नानाघर है जिनके एक–दूसरे के सामने नहीं खुलते। यहाँ जल के रिसाव को रोकने का उत्तम प्रबंध था। इसके अलावा, जल की निकासी के लिए पबर्का नालियों और नाले बने हैं। ये प्रमाण इस सभ्यता को ‘जल–सभ्यता‘ सिदूध करने के लिए पर्याप्त हैं।
वर्तमान में विश्व की जनसंख्या तेज़ गति से बढीहै, जिससे जल की माँग भी बही है। पृथ्वी पर तीन–चौथाई भाग में जल जरूर है, पर इसका बहुत थोडा–सा भाग हो पीने के योग्य है।मनुष्य की स्वार्थपूर्ण गतिविधियों और वसे–व्यवहार इस जल को दूषित एवं बरबाद कर रहा है। अता जल–मक्षण की आवश्यकता बहुत ज़रूरी हो गई है। जल–मक्षण के लिए –

  1. जल का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
  2. जल को दूषित करने से बचने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।
  3. अधिकाधिक वृक्षारोपण करना चाहिए।
  4. फ़ैक्टरियों तथा घरों का दूषित एवं अशुद्ध जल नदी-नालों तथा जल-स्रोतों में नहीं मिलने देना चाहिए।
  5. नदियों तथा अन्य जल-स्रोतों को साफ़-सुथरा रखना चाहिए ताकि हमें स्वच्छ जल प्राप्त हो सके।

प्रश्न 5:
‘अतीत में दबे पाँव’ में सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की नगर-योजनाओं से किस प्रकार बेहतर थी? उदाहरण देते हुए लिखिए।
उत्तर –
‘अतीत में दबे पाँव’ नामक पाठ में लेखक ने वर्णन किया है कि सिंधु-सभ्यता के सबसे बड़े नगर मुअनजो-दड़ो की नगर-योजना आज की नगर-योजनाओं से इस प्रकार भिन्न थी कि यहाँ का नगर-नियोजन बेमिसाल एवं अनूठा था। यहाँ की सड़कें चौड़ी और समकोण पर काटती हैं। कुछ ही सड़कें आड़ी-तिरछी हैं। यहाँ जल-निकासी की व्यवस्था भी उत्तम है। इसके अलावा, इसकी अन्य विशेषताएँ  थे। 

  1. यहाँ सुनियोजित ढंग से नगर बसाए गए थे।
  2. नगर निवासी की व्यवस्था उत्तम एवं उत्कृष्ट थी।
  3. यहाँ की मुख्य सड़कें अधिक चौड़ी तथा गलियाँ सँकरी थीं।
  4. मकानों के दरवाजे मुख्य सड़क पर नहीं खुलते थे।
  5. कृषि को व्यवसाय के रूप में लिया जाता था।
  6. हर जगह एक ही आकार की पक्की ईटों का प्रयोग होता था।
  7. सड़क के दोनों ओर ढँकी हुई नालियाँ मिलती थीं।
  8. हर नगर में अन्न भंडारगृह और स्नानागार थे।
  9. यहाँ की मुख्य और चौड़ी सड़क के दोनों ओर घर हैं, जिनका पृष्ठभाग सड़क की ओर है।

इस प्रकार मुअनजो-दड़ो की नगर योजना अपने-आप में अनूठी मिसाल थी।

स्वयं करें

प्रश्न:

  1. निम्नलिखित गदयांश को पढ़कर पूछे गए मूल्यपरक प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
    अजायबघर में रखी चीजों में कुछ सूइयाँ भी हैं। खुदाई में ताँबे और काँसे की तो बहुत सारी सूइयाँ मिली थीं। काशीनाथ दीक्षित को सोने की तीन सूइयाँ मिलीं जिनमें से एक दो-इंच लंबी थी। समझा गया है कि यह बारीक कशीदेकारी में काम आती होगी। याद करें, नर्तकी के अलावा मुअनजो-दड़ो के नाम से प्रसिद्ध जो दाढ़ी वाले ‘नरेश’ की मूर्ति है, उसके बदन पर आकर्षक गुलकारी वाला दुशाला भी है। आज छापे वाला कपड़ा ‘अजरक’ सिंध की खास पहचान बन गया है, पर कपड़ों पर छपाई का आविष्कार बहुत बाद का है। खुदाई में सूइयों के अलावा हाथीदाँत और ताँबे के सूए भी मिले हैं। जानकार मानते हैं कि इनसे शायद दरियाँ बुनी जाती थीं। हालाँकि दरी का कोई नमूना या साक्ष्य हासिल नहीं हुआ है। वह शायद कभी हासिल न हो, क्योंकि मुअनजो-दड़ो में अब खुदाई बंद कर दी गई है। सिंधु के पानी के रिसाव शरदत्तक सत्या पैताह है मंत्रा वह कवक खनाह अवा अने आयामें बाह –
    1. सिंधु घाटी की सभ्यता में बुनाई और कशीदकारी की कला उन्नत थी। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं? उदाहरण सहित लिखिए।
    2. प्राचीन भवनों विरासत की वस्तुओं आदि को बचाकर रखने को आप कितना चुनौतीपूर्ण मानते हैं और क्यों?
    3. विरासत की वस्तुओं को बचाए रखने में आप अपना योगदान किस प्रकार दे सकते हैं, लिखिए। इनको सरक्षित न करने का क्या परिणाम होगा?
  2. मुअनजो-दड़ो में प्राप्त सूए और सूइयों से तत्कालीन मानव-जीवन के किन पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है?
  3. मुअनजो-दड़ो कहाँ है? वह क्यों प्रसिद्ध है?
  4. लेखक को दरी का नमूना मिलने की संभावना क्यों नहीं दिखाई देती?
  5. हड़प्पा के साक्ष्य नष्ट होने का क्या कारण है?
  6. लेखक राजस्थान व सिंध के प्राकृतिक वातावरण पर क्या टिप्पणी करता है?
  7. निम्नवर्ग के मकानों के बारे में लेखक क्या अनुमान लगाता है?
  8. लेखक ने ‘प्राचीन लैंडस्केप’ किसे कहा है?
  9. ‘अतीत में दबे पाँव’ पाठ के आधार पर सिंधु-सभ्यता में प्राप्त वस्तुओं का वर्णन कीजिए।

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Aman

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