जीवन परिचय-श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़रुखाबाद (उ०प्र०) में 1907 ई० में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इंदौर के मिशन स्कूल में हुई थी। नौ वर्ष की आयु में इनका विवाह हो गया था। परंतु इनका अध्ययन चलता रहा। 1929 ई० में इन्होंने बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, परंतु महात्मा गांधी के संपर्क में आने पर ये समाज-सेवा की ओर उन्मुख हो गई। 1932 ई० में इन्होंने इलाहाबाद से संस्कृत में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कीं और प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना करके उसकी प्रधानाचार्या के रूप में कार्य करने लगीं। मासिक पत्रिका ‘चाँद’ का भी इन्होंने कुछ समय तक संपादन-कार्य किया। इनका कर्मक्षेत्र बहुमुखी रहा है। इन्हें 1952 ई० में उत्तर प्रदेश की विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। 1954 ई० में ये साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या बनीं। 1960 ई० में इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ का कुलपति बनाया गया। इनके व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने 1956 ई० में इन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। 1983 ई० में ‘यामा’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने भी इन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। सन 1987 में इनकी मृत्यु हो गई।
रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
काव्य-संग्रह – नीहार, रश्मि, नीरजा, यामा, दीपशिखा।
संस्मरण – अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी, मेरा परिवार।
निबंध-संग्रह – श्रृंखला की कड़ियाँ आपदा, संकल्पिता, भारतीय संस्कृति के स्वर।
साहित्यिक विशेषताएँ – साहित्य सेविका और समाज-सेविका दोनों रूपों में महादेवी वर्मा की प्रतिष्ठा रही है। महात्मा गाँधी की दिखाई राह पर अपना जीवन समर्पित करके इन्होंने शिक्षा और समाज-कल्याण के क्षेत्र में निरंतर कार्य किया। ये बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। ये छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। इनकी चर्चा निबंधों और संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के कारण एक अप्रतिम गद्यकार के रूप में भी होती है। कविताओं में ये अपनी आंतरिक वेदना और पीड़ा को व्यक्त करती हुई इस लोक से परे किसी और सत्ता की ओर अभिमुख दिखाई पड़ती हैं, तो गद्य में इनका गहरा सामाजिक सरोकार स्थान पाता है। इनकी श्रृंखला की कड़ियाँ कृति एक अद्वतीय रचना है जो हिंदी में स्त्री-विमर्श की भव्य प्रस्तावना है। इनके संस्मरणात्मक रेखाचित्र अपने आस-पास के ऐसे चरित्रों और प्रसंगों को लेकर लिखे गए हैं जिनकी ओर साधारणतया हमारा ध्यान नहीं खिच पाता। महादेवी जी की मर्मभेदी व करुणामयी दृष्टि उन चरित्रों की साधारणता में असाधारण तत्वों का संधान करती है। इस तरह इन्होंने समाज के शोषित-पीड़ित तबके को अपने साहित्य में नायकत्व प्रदान किया है।
भाषा-शैली – लेखिका ने अंतर्मन की अनुभूतियों का अंकन अत्यंत मार्मिकता से किया है। इनकी भाषा में बनावटीपन नहीं है। इनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दों की प्रमुखता है। इनके गद्य-साहित्य में भावनात्मक, संस्मरणात्मक, समीक्षात्मक, इत्तिवृत्तात्मक आदि अनेक शैलियों का रूप दृष्टिगोचर होता है। मर्मस्पर्शिता इनके गद्य की प्रमुख विशेषता है।
प्रतिपादय-‘भक्तिन’ महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जो ‘स्मृति की रेखाएँ’ में संकलित है। इसमें लेखिका ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का दिलचस्प खाका खींचा है। महादेवी के घर में काम शुरू करने से पहले उसने कैसे एक संघर्षशील, स्वाभिमानी और कर्मठ जीवन जिया, कैसे पितृसत्तात्मक मान्यताओं और छल-छद्म भरे समाज में अपने और अपनी बेटियों के हक की लड़ाई लड़ती रही और हारकर कैसे ज़िंदगी की राह पूरी तरह बदल लेने के निर्णय तक पहुँची, इसका संवेदनशील चित्रण लेखिका ने किया है। साथ ही, भक्तिन लेखिका के जीवन में आकर छा जाने वाली एक ऐसी परिस्थिति के रूप में दिखाई पड़ती है, जिसके कारण लेखिका के व्यक्तित्व के कई अनछुए आयाम उद्घाटित होते हैं। इसी कारण अपने व्यक्तित्व का जरूरी अंश मानकर वे भक्तिन को खोना नहीं चाहतीं। सारांश-लेखिका कहती है कि भक्तिन का कद छोटा व शरीर दुबला था। उसके होंठ पतले थे। वह गले में कंठी-माला पहनती थी। उसका नाम लक्ष्मी था, परंतु उसने लेखिका से यह नाम प्रयोग न करने की प्रार्थना की। उसकी कंठी-माला को देखकर लेखिका ने उसका नाम ‘भक्तिन’ रख दिया। सेवा-धर्म में वह हनुमान से स्पद्र्धा करती थी।
उसके अतीत के बारे में यही पता चलता है कि वह ऐतिहासिक झूसी के गाँव के प्रसिद्ध अहीर की इकलौती बेटी थी। उसका लालन-पालन उसकी सौतेली माँ ने किया। पाँच वर्ष की उम्र में इसका विवाह हैंडिया गाँव के एक गोपालक के पुत्र के साथ कर दिया गया था। नौ वर्ष की उम्र में गौना हो गया। भक्तिन की विमाता ने उसके पिता की मृत्यु का समाचार देर से भेजा। सास ने रोनेपीटने के अपशकुन से बचने के लिए उसे पीहर यह कहकर भेज दिया कि वह बहुत दिनों से गई नहीं है। मायके जाने पर विमाता के दुव्र्यवहार तथा पिता की मृत्यु से व्यथित होकर वह बिना पानी पिए ही घर वापस चली आई। घर आकर सास को खरी-खोटी सुनाई तथा पति के ऊपर गहने फेंककर अपनी व्यथा व्यक्त की। भक्तिन को जीवन के दूसरे भाग में भी सुख नहीं मिला। उसके लगातार तीन लड़कियाँ पैदा हुई तो सास व जेठानियों ने उसकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। इसका कारण यह था कि सास के तीन कमाऊ बेटे थे तथा जेठानियों के काले-काले पुत्र थे। जेठानियाँ बैठकर खातीं तथा घर का सारा काम-चक्की चलाना, कूटना, पीसना, खाना बनाना आदि कार्य-भक्तिन करती। छोटी लड़कियाँ गोबर उठातीं तथा कंडे थापती थीं। खाने के मामले में भी भेदभाव था। जेठानियाँ और उनके लड़कों को भात पर सफेद राब, दूध व मलाई मिलती तथा भक्तिन को काले गुड़ की डली, मट्ठा तथा लड़कियों को चने-बाजरे की घुघरी मिलती थी। इस पूरे प्रकरण में भक्तिन के पति का व्यवहार अच्छा था। उसे अपनी पत्नी पर विश्वास था।
पति-प्रेम के बल पर ही वह अलग हो गई। अलग होते समय अपने ज्ञान के कारण उसे गाय-भैंस, खेत, खलिहान, अमराई के पेड़ आदि ठीक-ठाक मिल गए। परिश्रम के कारण घर में समृद्ध आ गई। पति ने बड़ी लड़की का विवाह धूमधाम से किया। इसके बाद वह दो कन्याओं को छोड़कर चल बसा। इस समय भक्तिन की आयु 29 वर्ष की थी। उसकी संपत्ति देखकर परिवार वालों के मुँह में पानी आ गया। उन्होंने दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया तो भक्तिन ने स्पष्ट मना कर दिया। उसने केश कटवा दिए तथा गुरु से मंत्र लेकर कंठी बाँध ली। उसने दोनों लड़कियों की शादी कर दी और पति के चुने दामाद को घर-जमाई बनाकर रखा। जीवन के तीसरे परिच्छेद में दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसकी लड़की भी विधवा हो गई। परिवार वालों की दृष्टि उसकी संपत्ति पर थी। उसका जेठ अपनी विधवा बहन के विवाह के लिए अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया क्योंकि उसका विवाह हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता।
भक्तिन की लड़की ने उस वर को नापसंद कर दिया। माँ-बेटी मन लगाकर अपनी संपत्ति की देखभाल करने लगीं। एक दिन भक्तिन की अनुपस्थिति में उस तीतरबाज वर ने बेटी की कोठरी में घुसकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँव वालों को बुलाने लगे। लड़की ने उसकी खूब मरम्मत की तो पंच समस्या में पड़ गए। अंत में पंचायत ने कलियुग को इस समस्या का कारण बताया और अपीलहीन फैसला हुआ कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा। अपमानित बालिका व माँ विवश थीं। यह संबंध सुखकर नहीं था। दामाद निश्चित होकर तीतर लड़ाता था, जिसकी वजह से पारिवारिक द्वेष इस कदर बढ़ गया कि लगान अदा करना भी मुश्किल हो गया। लगान न पहुँचने के कारण जमींदार ने भक्तिन को कड़ी धूप में खड़ा कर दिया।
यह अपमान वह सहन न कर सकी और कमाई के विचार से शहर चली आई। जीवन के अंतिम परिच्छेद में, घुटी हुई चाँद, मैली धोती तथा गले में कंठी पहने वह लेखिका के पास नौकरी के लिए पहुँची और उसने रोटी बनाना, दाल बनाना आदि काम जानने का दावा किया। नौकरी मिलने पर उसने अगले दिन स्नान करके लेखिका की धुली धोती भी जल के छींटों से पवित्र करने के बाद पहनी। निकलते सूर्य व पीपल को अर्घ दिया। दो मिनट जप किया और कोयले की मोटी रेखा से चौके की सीमा निर्धारित करके खाना बनाना शुरू किया। भक्तिन छूत-पाक को मानने वाली थी। लेखिका ने समझौता करना उचित समझा। भोजन के समय भक्तिन ने लेखिका को दाल के साथ मोटी काली चित्तीदार चार रोटियाँ परोसीं तो लेखिका ने टोका। उसने अपना तर्क दिया कि अच्छी सेंकने के प्रयास में रोटियाँ अधिक कड़ी हो गई। उसने सब्जी न बनाकर दाल बना दी। इस खाने पर प्रश्नवाचक दृष्टि होने पर वह अमचूरण, लाल मिर्च की चटनी या गाँव से लाए गुड़ का प्रस्ताव रखा।
भक्तिन के लेक्चर के कारण लेखिका रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर विश्वविद्यालय पहुँची और न्यायसूत्र पढ़ते हुए शहर और देहात के जीवन के अंतर पर विचार करने लगी। गिरते स्वास्थ्य व परिवार वालों की चिंता निवारण के लिए लेखिका ने खाने के लिए अलग व्यवस्था की, किंतु इस देहाती वृद्धा की सरलता से वह इतना प्रभावित हुई कि वह अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी। भक्तिन स्वयं को बदल नहीं सकती थी। वह दूसरों को अपने मन के अनुकूल बनाने की इच्छा रखती थी। लेखिका देहाती बन गई, परंतु भक्तिन को शहर की हवा नहीं लगी। उसने लेखिका को ग्रामीण खाना-खाना सिखा दिया, परंतु स्वयं ‘रसगुल्ला’ भी नहीं खाया। उसने लेखिका को अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ करा दीं, परंतु खुद ‘आँय’ के स्थान पर ‘जी’ कहना नहीं सीखा। भक्तिन में दुर्गुणों का अभाव नहीं था। वह इधर-उधर पड़े पैसों को किसी मटकी में छिपाकर रख देती थी जिसे वह बुरा नहीं मानती थी। पूछने पर वह कहती कि यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! अपनी मालकिन को खुश करने के लिए वह बात को बदल भी देती थी। वह अपनी बातों को शास्त्र-सम्मत मानती थी। वह अपने तर्क देती थी। लेखिका ने उसे सिर घुटाने से रोका तो उसने ‘तीरथ गए मुँड़ाए सिद्ध।’ कहकर अपना कार्य शास्त्र-सिद्ध
बताया। वह स्वयं पढ़ी-लिखी नहीं थी। अब वह हस्ताक्षर करना भी सीखना नहीं चाहती थी। उसका तर्क था कि उसकी मालकिन दिन-रात किताब पढ़ती है। यदि वह भी पढ़ने लगे तो घर के काम कौन करेगा। भक्तिन अपनी मालकिन को असाधारणता का दर्जा देती थी। इसी से वह अपना महत्व साबित कर सकती थी। उत्तर-पुस्तिका के निरीक्षण-कार्य में लेखिका का किसी ने सहयोग नहीं दिया। इसलिए वह कहती फिरती थी कि उसकी मालकिन जैसा कार्य कोई नहीं जानता। वह स्वयं सहायता करती थी। कभी उत्तर-पुस्तिकाओं को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जो सहायता करती थी उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। लेखिका की किसी पुस्तक के प्रकाशन होने पर उसे प्रसन्नता होती थी। उस कृति में वह अपना सहयोग खोजती थी। लेखिका भी उसकी आभारी थी क्योंकि जब वह बार-बार के आग्रह के बाद भी भोजन के लिए न उठकर चित्र बनाती रहती थी, तब भक्तिन कभी दही का शरबत अथवा कभी तुलसी की चाय पिलाकर उसे भूख के कष्ट से बचाती थी।
भक्तिन में गजब का सेवा-भाव था। छात्रावास की रोशनी बुझने पर जब लेखिका के परिवार के सदस्य-हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि भी-आराम करने लगते थे, तब भी भक्तिन लेखिका के साथ जागती रहती थी। वह उसे कभी पुस्तक देती, कभी स्याही तो कभी फ़ाइल देती थी। भक्तिन लेखिका के जागने से पहले जागती थी तथा लेखिका के बाद सोती थी। बदरी-केदार के पहाड़ी तंग रास्तों पर वह लेखिका से आगे चलती थी, परंतु गाँव की धूलभरी पगडंडी पर उसके पीछे रहती थी। लेखिका भक्तिन को छाया के समान समझती थी। युद्ध के समय लोग डरे हुए थे, उस समय वह बेटी-दामाद के आग्रह पर लेखिका के साथ रहती थी। युद्ध में भारतीय सेना के पलायन की बात सुनकर वह लेखिका को अपने गाँव ले जाना चाहती थी। वहाँ वह लेखिका के लिए हर तरह के प्रबंध करने का आश्वासन देती थी। वह अपनी पूँजी को भी दाँव पर लगाने के लिए तैयार थी। लेखिका का मानना है कि उनके बीच स्वामी-सेवक का संबंध नहीं था।
इसका कारण यह था कि वह उसे इच्छा होने पर भी हटा नहीं सकती थी और भक्तिन चले जाने का आदेश पाकर भी हँसकर टाल रही थी। वह उसे नौकर भी नहीं मानती थी। भक्तिन लेखिका के जीवन को घेरे हुए थी। भक्तिन छात्रावास की बालिकाओं के लिए चाय बना देती थी। वह उन्हें लेखिका के नाश्ते का स्वाद भी लेने देती थी। वह लेखिका के परिचितों व साहित्यिक बंधुओं से भी परिचित थी। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थी जैसा लेखिका करती थी। वह उन्हें आकारप्रकार, वेश-भूषा या नाम के अपभ्रंश द्वारा जानती थी। कवियों के प्रति उसके मन में विशेष आदर नहीं था, परंतु दूसरे के दुख से वह कातर हो उठती थी। किसी विद्यार्थी के जेल जाने पर वह व्यथित हो उठती थी। वह कारागार से डरती थी, परंतु लेखिका के जेल जाने पर खुद भी उनके साथ चलने का हठ किया। अपनी मालकिन के साथ जेल जाने के हक के लिए वह बड़े लाट तक से लड़ने को तैयार थी। भक्तिन का अंतिम परिच्छेद चालू है। वह इसे पूरा नहीं करना चाहती।
शब्दार्थ
संकल्य – निश्चय। विचित्र-आश्चर्यजनक। जिज़ासु – उत्सुक। चिंतन – विचार। स्यदध – मुकाबला। अंजना – हनुमान की माता। दुवह – जिसे ढोना मुश्किल हो। कयाल – भाग्य, माथा। कुचित – सिकुड़ी हुई। शेष द्वतिवृत्त – पूरी कथा। अंशत: – थोड़ा-सा।
विमाता – सौतेली माता। किंवदंती – जनता में प्रचलित बातें। वय – आयु, जवानी। गोना – विवाह के बाद पति का अपने ससुराल से अपनी पत्नी को पहली बार अपने घर ले आना। अगाध – अधिक, गहरा । मरयातक – जानलेवा। नेहर – मायका। अप्रत्याशित – जिसकी आशा न हो। अनुग्रह – कृपा। युनरावृतियाँ – बार-बार कहना। ठेले ले जाना –पहुँचाना। लेश – तनिक। चिर बिछह – स्थायी वियोग। ममव्यथा – हृदय को कष्ट देने वाली पीड़ा। परिच्छेद – अध्याय। विधात्री – जन्म देने वाली। माचिया – खाट की तरह बुनी हुई छोटी चौकी (बैठकी) । विराजमान – बैठना। युरखिन – बड़ी-बूढ़ी। अभिषिक्त – जिसका अभिषेक हुआ हो, अधिका-प्राप्त। काकभुशडी – राम का एक भक्त जो शापवश एक कौआ बना। सृष्टि – रचना, संसार। लीक छोड़ना – परंपरा को तोड़ना। राब – खाँड़, गाढ़ा सीरा। औटना – ताप से गाढ़ा करना। टकसाल – वह स्थान जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं। चुगली-चबाड़ – निंदा। परिणति – निष्कर्ष।
अलगढ़ा – बँटवारा। खलिहान – कटी फसल को रखने का स्थान। निरंतर – लगातार। कुकुरी – कुतिया। बिलारी – बिल्ली। होरहा – होला, आग पर भुना हरे चने का रूप। आजिया ससुर – पति का बाबा। कै – कितने ही। उपार्जित – कमाई। कटिबद्ध – तैयार। जिठत – पति के बड़े भाई का पुत्र। गठबंधन – विवाह, शादी।
परिमाजन – शुद्ध करना, सुधार करना। कर्मठता – मेहनत। दीक्षित – जिसने दीक्षा ग्रहण किया हो। अथ – प्रारंभ। अभिनदन – स्वागत।
नितांत – पूर्णत:। वीतराग – आसक्तिरहित। आसीन – बैठा। निर्दिष्ट – निश्चित। पितिया ससुर – पति का चाचा। मौखिक – जबानी। निवारण – दूर करना। उपचार – इलाज। जाग्रत – सचेत।
मकड़ – मक्का। लयसी-पतला – सा हलुवा। क्रियात्मक – व्यावहारिक। पोयला – दाँतरहित मुँह। दत-कथाएँ – परंपरा से चले आ रहे किस्से। कंठस्थ – याद। नरो वा कुंजरो वा – मनुष्य या हाथी। सिर घुटाना – जड़ से बाल कटवाना। अंकुरित भाव – बिना संकोच के। चूड़ाकम – सिर के बाल को पहले-पहल कटवाना। नायित – नाई। निष्यन्न – पूर्ण।अपमान – निरादर। मंथरता – धीमी गति। पटु – चतुर। पिंड छुड़ाया – छुटकारा पाया।
अतिशयोक्तियाँ – बढ़ा-चढ़ाकर कही गई बातें। अमरबेल – जड़रहित बेल जो दूसरे वृक्षों से जीवनरस लेकर फैलती है। आभा – प्रकाश। उदभासित – आलोकित। पागुर –जुगाली। निस्तब्धता – शांति। प्रशांत – पूरी तरह शांत।
आतांकित – भयभीत। नाती – बेटी का पुत्र। विनीत – विनम्र। मचान – बाँस आदि की सहायता से बनाया गया ऊँचा आसन।
स्नेह – प्रेम। सम्मान – आदर। अपभ्रंश – बिगड़ा हुआ। कारागार – जेल।
माड़ – माँ। बड़े लाट – वायसराय। विषम – विपरीत। दुलभ – कठिन।
निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
प्रश्न 1:
सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पद्र्धा करने वाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लछमिन अर्थात लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्ध भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धसूचक नाम किसी को बताती नहीं।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 2:
पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावत: ईष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ न बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसके पैरों में जो पंख लगा दिए थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गए। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गई। पर वहाँ न पिता का चिहन शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दुख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिए उलटे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर विछोह की मर्मव्यथा व्यक्त की।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 3:
जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दुख ही अधिक है। जब उसने गेहुँए रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था, क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशंडी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दंड मिलना आवश्यक हो गया।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 4:
इस दंड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी से पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली-चबाई की परिणति उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर धमाधम पीटी-कूटी जातीं, पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्विनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगोझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असंतोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दंपति के निरंतर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 5:
भक्तिन का दुर्भाग्य भी उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका गठबंधन हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसंद कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरे भाइयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अत: यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी संपत्ति की देख-भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरितार्थ करने वाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 6:
तीतरबाज युवक कहता था, वह निमंत्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उँगलियों के उभार में इस निमंत्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अंत में दूध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहे दोनों झूठे; जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने होंठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चित होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय-ढोर, खेती-बारी जब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गए कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अंत में एक बार लगान न पहुँचने पर जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में खड़ा रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अत: दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 7:
दूसरे दिन तड़के ही सिर पर कई लोटे औधाकर उसने मेरी धुली धोती जल के छींटों से पवित्र कर पहनी और पूर्व के अंधकार और मेरी दीवार से फूटते हुए सूर्य और पीपल का दो लोटे जल से अभिनंदन किया। दो मिनट नाक दबाकर जप करने के उपरांत जब वह कोयले की मोटी रेखा से अपने साम्राज्य की सीमा निश्चित कर चौके में प्रतिष्ठित हुई, तब मैंने समझ लिया कि इस सेवक का साथ टेढ़ी खीर है। अपने भोजन के संबंध में नितांत वीतराग होने पर भी मैं पाक-विद्या के लिए परिवार में प्रख्यात हूँ और कोई भी पाक-कुशल दूसरे के काम में नुक्तानीनी बिना किए रह नहीं सकता। पर जब छूत-पाक पर प्राण देने वाले व्यक्तियों का बात-बात पर भूखा मरना स्मरण हो आया और भक्तिन की शंकाकुल दृष्टि में छिपे हुए निषेध का अनुभव किया, तब कोयले की रेखा मेरे लिए लक्ष्मण के धनुष से खींची हुई रेखा के सामने दुलध्य हो उठी। निरुपाय अपने कमरे में बिछौने में पड़कर नाक के ऊपर खुली हुई पुस्तक स्थापित कर मैं चौके में पीढ़े पर आसीन अनाधिकारी को भूलने का प्रयास करने लगी। ।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 8:
भोजन के समय जब मैंने अपनी निश्चित सीमा के भीतर निर्दिष्ट स्थान ग्रहण कर लिया, तब भक्तिन ने प्रसन्नता से लबालब दृष्टि और आत्मतुष्टि से आप्लावित मुसकुराहट के साथ मेरी फूल की थाली में एक अंगुल मोटी और गहरी काली चित्तीदार चार रोटियाँ रखकर उसे टेढ़ी कर गाढ़ी दाल परोस दी। पर जब उसके उत्साह पर तुषारपात करते हुए मैंने रुआँसे भाव से कहा-‘यह क्या बनाया है?’ तब वह हतबुद्धि हो रही।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 9:
मेरे इधर-उधर पड़े पैसे-रुपये, भंडार-घर की किसी मटकी में कैसे अंतरहित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्तिन जानती है। पर, उस संबंध में किसी के संकेत करते ही वह उसे शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दे डालती है, जिसको स्वीकार कर लेना किसी तर्क-शिरोमणि के लिए संभव नहीं यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! उसके जीवन का परम कर्तव्य मुझे प्रसन्न रखना है-जिस बात से मुझे क्रोध आ सकता है, उसे बदलकर इधर-उधर करके बताना, क्या झूठ है! इतनी चोरी और इतना झूठ तो धर्मराज महाराज में भी होगा।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 10:
पर वह स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती, इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है-इसी से वह द्वार पर बैठकर बार-बार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर-पुस्तकों को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहुँचाती है, उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बँटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते, तब वह सहायता की इच्छा को क्रियात्मक रूप देती है।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 11:
इसी से मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसे ही उद्भासित हो उठती है जैसे स्विच दबाने से बल्ब में छिपा आलोक। वह सूने में उसे बार-बार छूकर, आँखों के निकट ले जाकर और सब ओर घुमा-फिराकर मानो अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्टि में व्यक्त आत्मघोष कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता। यह स्वाभाविक भी है। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब बार-बार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती, तब वह कभी दही का शर्बत, कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 12:
मेरे भ्रमण की भी एकांत साथिन भक्तिन ही रही है। बदरी-केदार आदि के ऊँचे-नीचे और तंग पहाड़ी रास्ते में जैसे वह हठ करके मेरे आगे चलती रही है, वैसे ही गाँव की धूलभरी पगडंडी पर मेरे पीछे रहना नहीं भूलती। किसी भी समय, कहीं भी जाने के लिए प्रस्तुत होते ही मैं भक्तिन को छाया के समान साथ पाती हूँ। देश की सीमा में युद्ध को बढ़ते देखकर जब लोग आतंकित हो उठे, तब भक्तिन के बेटी-दामाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुँचे; पर बहुत समझाने-बुझाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी। सबको वह देख आती है; रुपया भेज देती है; पर उनके साथ रहने के लिए मेरा साथ छोड़ना आवश्यक है; जो संभवत: भक्तिन को जीवन के अंत तक स्वीकार न होगा।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 13:
गत वर्ष जब युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन-वृत्ति जगा दी थी, तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे गाँव चलने का अनुरोध करने आई। वह लकड़ी रखने के मचान पर अपनी नयी धोती बिछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दीवाल में कीलें गाड़कर और उन पर तख्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुआल का गोंदरा बनवाकर और उस पर अपना कंबल बिछाकर वह मेरे सोने का प्रबंध करेगी। मेरे रंग, स्याही आदि को नयी हैंड़ियों में सँजोकर रख देगी और कागज-पत्रों को छींके में यथाविधि एकत्र कर देगी।
प्रश्न:
उत्तर –
प्रश्न 14:
भक्तिन और मेरे बीच में सेवक-स्वामी का संबंध है, यह कहना कठिन है; क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है, जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरे-उजाले और आँगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं, जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दुख देते हैं, उसी प्रकार भक्तिन का स्वतंत्र व्यक्तित्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए है।
प्रश्न:
उपर्युक्त गदयांश में किनके स्वामी – सेवक संबंधों की चर्चा की गई है ?उन संबंधों की क्या विशेषता बताई गई है ?
लेखिका के लिए आँगन में फूलने वाला गुलाब और आम सेवक क्यों नहीं है ? क्या यह बात भक्तिन पर भी लागू होती है ?
आम और गुलाब किन रूपों में लेखिका से सुख -दुःख के कारण है और क्यों ?
भक्तिन का लेखिका के साथ किस प्रकार का संबंद है ?
उत्तर –
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1:
भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी2 भक्तिन नाम किसने और क्यों दिया होगा?
उत्तर –
भक्तिन का वास्तविक नाम लछमिन अर्थात् लक्ष्मी था जिसका अर्थ है धन की देवी। लेकिन लक्ष्मी के पास धन बिलकुल नहीं था। वह बहुत गरीब थी। इसलिए वह अपना वास्तविक नाम छुपाती थी। उसे यह नाम उसके घरवालों ने दिया होगा। भारतीय समाज में लड़की का पैदा होना वास्तव में लक्ष्मी का घर आना माना जाता है। इसलिए उसके जन्म लेने पर उसका यह नाम रख दिया।
प्रश्न 2:
दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भी भक्तिन पुत्र-महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अकसर यह धारणा चलती है की स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या इससे आप सहमत है ?
उत्तर –
दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भी भक्तिन पुत्र-महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा की शिकार बनी। भक्तिन की सास ने तीन पुत्रों को जन्म दिया तथा जिठानियाँ भी पुत्रों को जन्म देकर सास की बराबरी कर रही थीं। ऐसी स्थिति में भक्तिन द्वारा सिर्फ़ कन्याओं के जन्म देने से वे उसकी उपेक्षा करने लगीं। यह सही है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। भक्तिन को उसके पति से अलग करने के लिए अनेक षड्यंत्र भी सास व जिठानियों ने किए। एक नारी दूसरी नारी के सुख को देखकर कभी खुश नहीं होती। पुत्र न होना, संतान न होना, दहेज आदि सभी मामलों में नारी ही समस्या को गंभीर बनाती है। वे ताने देकर समस्याग्रस्त महिला का जीना हराम कर देती हैं। दूसरी तरफ पुरुष को भी गलत कार्य के लिए उकसाती है। नवविवाहिता को दहेज के लिए प्रताड़ित करने वाली भी स्त्रियाँ ही होती हैं।
प्रश्न 3:
भक्तिन की बेटी पर पंचायत दवारा ज़बरन पति थोपा जाना एक दुर्घटना भर नहीं ,बल्कि विवाह के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करें या न करें अथवा किससे करें) की स्वतंत्रता को कुचलते रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक हैं। कैसे?
अथवा
भक्तिन की बेटी पर पंचायत दवारा ज़बरन पति थोपा जाना स्त्री के के मानवाधिकार को कुचलने की परंपरा का प्रतिक है। ।’ इस कथन पर तक्रसम्मत टिप्पणी कीजिए?
उत्तर –
नारी पर अनादिकाल से हर फैसला थोपा जाता रहा है। विवाह के बारे में वह निर्णय नहीं ले सकती। माता-पिता जिसे चाहे वही उसका पति बन जाता है। लड़की की इच्छा इसमें बिलकुल शामिल नहीं होता। लड़की यदि मान जाती है, तो ठीक वरना उसकी शादी जबरदस्ती करवा दी जाती है। उसे इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि वह किससे विवाह करे या किससे न करे। उसके इस मानवाधिकार को तो माता-पिता सदियों से कुचलते रहे हैं।
प्रश्न 4:
भक्तिन अच्छी है ,यह कहना कठीन होगा ,क्योंकि उसमें दुर्गुणों का आभाव नहीं। लेखिका ने ऐसा क्यों कहा होगा ?
उत्तर –
भक्तिन में सेवा-भाव है, वह कर्तव्यपरायणा है, परंतु इसके बावजूद उसमें अनेक दुर्गुण भी हैं। लेखिका उसे अच्छा कहने में कठिनाई महसूस करती है। लेखिका को भक्तिन के निम्नलिखित कार्य दुर्गुण लगते हैं –
प्रश्न 5:
भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया हैं?
उत्तर –
जब लेखिका चोरी हुए पैसों के बारे में लछमिन से पूछती है तो वह कहती है कि पैसे मैंने सँभालकर रख लिए हैं। क्या अपने ही घर में पैसे सँभालकर रखना चोरी है। वह कहती है कि चोरी और झूठ तो धर्मराज युधिष्ठिर में भी होगा। नहीं तो वे श्रीकृष्ण को कैसे खुश रख सकते थे और संसार (अपने राज्य को कैसे) चला सकते थे। चोरी करने की घटनाओं और महाराज युधिष्ठिर के उदाहरणों के माध्यम से लेखिका ने शास्त्र प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का वर्णन किया है।
प्रश्न 6:
भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती कैसे हो गईं?
अथवा
भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती हो गई, कैस? सोदाहरण लिखिए।
उत्तर –
भक्तिन देहाती महिला थी। शहर में आकर उसने स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं किया। ऊपर से वह दूसरों को भी अपने अनुसार बना लेना चाहती है, पर अपने मामले में उसे किसी प्रकार का हस्तक्षेप पसंद नहीं था। उसने लेखिका का मीठा खाना बिल्कुल बंद कर दिया। उसने गाढ़ी दाल व मोटी रोटी खिलाकर लेखिका की स्वास्थ्य संबंधी चिंता दूर कर दी। अब लेखिका को रात को मकई का दलिया, सवेरे मट्ठा, तिल लगाकर बाजरे के बनाए हुए ठंडे पुए, ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे-हरे दानों की खिचड़ी व सफेद महुए की लपसी मिलने लगी। इन सबको वह स्वाद से खाने लगी। इसके अतिरिक्त उसने महादेवी को देहाती भाषा भी सिखा दी। इस प्रकार महादेवी भी देहाती बन गई।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1:
‘आलो आँधारि’ की नायिका और लिखिका बेबी हलदान और भक्तिन के व्यक्तित्व में आप क्या समानता देखते है ?
उत्तर –
बेबी हालदार का जीवन भी संघर्षशील रहा है। वह भी भक्तिने की तरह लोगों के घरों में काम करती है। लोगों के चौका बर्तन साफ़ कर अपना पेट पालती है। यही स्थिति भक्तिन की है। यद्यपि उसके पास सबकुछ था लेकिन जेठ-जेठानियों और दामाद ने उसे कंगाल बना दिया। वह काम की तलाश में शहर आ गई। बेबी हालदार और भक्तिन दोनों ही शोषण का शिकार रहीं।
प्रश्न 2:
भक्तिन की बेटी के मामले में जिम तरह का फ़ैसलापंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं है।अखबयों या टी०वी० समाचारों में आने वार्ता किसी ऐसी ही घटना की भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस परचर्चा करें?
उत्तर –
भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का केसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज बात नहीं है । अब भी पंचायतों का तानाशाही रवैया बरकरार है । अखबारों या सी०ची० पर अकसर समाचार सुनने को मिलते हैं कि प्रेम विवाह को पंचायतें अवैध करार देती हैं तथा पति–पत्नी को भाई–बहिन की तरह रहने के लिए विवश करती हैं । वे उन्हें सजा भी देती हैं । कईं बार तो उनकी हत्या भी कर दी जाती है । यह मध्ययुगीन बर्बरता आज भी विदूयमान है।
प्रश्न 3:
पाँच वर्ष की वय में ब्याही जाने वाली लड़कियों में सिर्फ भक्तिन नहीं हैं, बल्कि आज भी हज़ारों अभागिनियाँ हैं।बाल–विवाह और उप्र के अनर्मलपन वाले विवाह की अपने उम–पास हरे सारे घटनाओं पर लेस्ली‘ के साथ परिचर्चा करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं परिचर्चा करें।
प्रश्न 4:
महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु-पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेखिका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कई पशु-पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्र भी लिखे हैं। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढ़कर पढ़ें। जो ‘मेरा परिवार’ नाम से प्रकाशित हैं।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं पढ़ें।
भाषा की बात
प्रश्न 1:
नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा-प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढ़िए और इनकी अर्थ-छवि स्पष्ट कीजिए –
उत्तर –
प्रश्न 2:
‘बहनोई’ शब्द ‘बहन (स्त्री) + ओई’ से बना है। इस शब्द में हिंदी भाषा की एक अनन्य विशेषता प्रकट हुई हैं। पुलिंलग शब्दों में कुछ स्त्री-प्रत्यय जोड़ने से स्त्रीलिंग शब्द बनने की एक समान प्रक्रिया कई भाषाओं में दिखती हैं, पर स्त्रीलिंग शब्द में कुछ पुलिंलग प्रत्यय जोड़कर पुलिंलग शब्द बनाने की घटना प्राय: अन्य भाषाओं में दिखाई नहीं पड़ती। यहाँ पुलिंलग प्रत्यय ‘ओई’ हिंदी की अपनी विशेषता है। ऐसे कुछ और शब्द और उनमें लगे पुलिंलग प्रत्ययों की हिंदी तथा और भाषाओं में खोज करें।
उत्तर –
इसी प्रकार का शब्द है-ननदोई = ननद + ओई।
प्रश्न 3:
पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझकर इन्हें खड़ी बोली हिंदी में ढालकर प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर –
प्रश्न 4:
‘भक्तिन’ पाठ में ‘पहली कन्या के दो संस्करण’ जैसे प्रयोग लेखिका के खास भाषाई संस्कार की पहचान कराता है, साथ ही ये प्रयोग कथ्य को संप्रेषणीय बनाने में भी मददगार हैं। वर्तमान हिंदी में भी कुछ अन्य प्रकार की शब्दावली समाहित हुई है। नीचे कुछ वाक्य दिए जा रहे हैं जिससे वक्ता की खास पसंद का पता चलता है। आप वाक्य पढ़कर बताएँ कि इनमें किन तीन विशेष प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है? इन शब्दावलियों या इनके अतिरिक्त अन्य किन्हीं विशेष शब्दावलियों का प्रयोग करते हुए आप भी कुछ वाक्य बनाएँ और कक्षा में चर्चा करें कि ऐसे प्रयोग भाषा की समृद्ध में कहाँ तक सहायक हैं?
प्रश्न:
उत्तर –
अन्य हल प्रश्न
बोधात्मक प्रश्न
प्रश्न 1:
भक्तिन पाठ के अधार पर भक्तिन का चरित्र – चित्रण कीजिए।
अथवा
भक्तिन के चरित्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
पाठ के आधार पर भक्तिन की तीन विशेषताएँ बताइए।
उत्तर –
‘भक्तिन’ लेखिका की सेविका है। लेखिका ने उसके जीवन-संघर्ष का वर्णन किया है। उसके चरित्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं?
प्रश्न 2:
भक्तिन की पारिवारिक पृष्ठ्भूमि पर प्रकाश डालिये ?
उत्तर –
भक्तिन झुंसी गाँव के एक गोपालक की इकलौती संतान थी। इसकी माता का देहांत हो गया था। फलत: भक्तिन की देखभाल विमाता ने किया। पिता का उस पर अगाध स्नेह था। पाँच वर्ष की आयु में ही उसका विवाह हैंडिया गाँव के एक ग्वाले के सबसे छोटे पुत्र के साथ कर दिया गया। नौ वर्ष की आयु में उसका गौना हो गया। विमाता उससे ईष्या रखती थी। उसने उसके पिता की बीमारी का समाचार तक उसके पास नहीं भेजा।
प्रश्न 3:
भक्तिन के ससुराल वालों का व्यवहार कैसा था ?
उत्तर –
भक्तिन के ससुराल वालों का व्यवहार उसके प्रति अच्छा नहीं था। घर की महिलाएँ चाहती थीं कि भक्तिन का पति उसकी पिटाई करे। वे उस पर रौब जमाना चाहती थीं। इसके अतिरिक्त, भक्तिन ने तीन कन्याओं को जन्म दिया, जबकि उसकी सास व जेठानियों ने लड़के पैदा किए थे। इस कारण उसे सदैव प्रताड़ित किया जाता था। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने भक्तिन पर पुनर्विवाह के लिए दबाव डाला। उसकी विधवा लड़की के साथ जबरदस्ती की। अंत में, भक्तिन को गाँव छोडना पडा।
प्रश्न 4:
भक्तिन का जीवन सदैव दुखों से भरा रहा। स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर –
भक्तिन का जीवन प्रारंभ से ही दुखमय रहा। बचपन में ही माँ गुजर गई। विमाता से हमेशा भेदभावपूर्ण व्यवहार मिला। विवाह के बाद तीन लड़कियाँ उत्पन्न करने के कारण उसे सास व जेठानियों का दुव्र्यवहार सहना पड़ा। किसी तरह परिवार से अलग होकर समृद्ध पाई, परंतु भाग्य ने उसके पति को छीन लिया। ससुराल वालों ने उसकी संपत्ति छीननी चाही, परंतु वह संघर्ष करती रही। उसने बेटियों का विवाह किया तथा बड़े जमाई को घर-जमाई बनाया। शीघ्र ही उसका देहांत हो गया। इस तरह उसका जीवन शुरू से अंत तक दुखों से भरा रहा।
प्रश्न 5:
लछमिन के पैरों के पंख गाँव की सीमा में आते ही क्यों झड़ गए ?
उत्तर –
लछमिन की सास का व्यवहार सदैव कटु रहा। जब उसने लछमिन को मायके यह कहकर भेजा कि “तुम बहुत दिन से मायके नहीं गई हो, जाओ देखकर आ जाओ” तो यह उसके लिए अप्रत्याशित था। उसके पैरों में पंख से लग गए थे। खुशी-खुशी जब वह मायके के गाँव की सीमा में पहुँची तो लोगों ने फुसफुसाना प्रारंभ कर दिया कि ‘हाय! बेचारी लछमिन अब आई है।” लोगों की नजरों से सहानुभूति झलक रही थी। उसे इस बात का अहसास नहीं था कि उसके पिता की मृत्यु हो चुकी है या वे गंभीर बीमार थे। विमाता ने उसके साथ अन्याय किया था। इसलिए वह हतप्रभ थी। उसकी तमाम खुशी समाप्त हो गई।
प्रश्न 6:
लछमिन ससुराल वालों से अलग क्यों हई ? इसका क्या परिणाम हुआ ?
उत्तर –
लछमिन मेहनती थी। तीन लड़कियों को जन्म देने के कारण सास व जेठानियाँ उसे सदैव प्रताड़ित करती रहती थीं। वह व उसके बच्चे घर, खेत व पशुओं का सारा काम करते थे, परंतु उन्हें खाने तक में भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता था। लड़कियों को दोयम दर्जे का खाना मिलता था। उसकी दशा नौकरों जैसी थी। अत: उसने ससुराल वालों से अलग होकर रहने का फैसला किया। अलग होते समय उसने अपने ज्ञान के कारण खेत, पशु घर आदि में अच्छी चीजें ले लीं। परिश्रम के बलबूते पर उसका घर समृद्ध हो गया।
प्रश्न 7:
भक्तिन व लेख्रिका के बीच कैसा संबंध था?
उत्तर –
लेखिका व भक्तिन के बीच बाहरी तौर पर सेवक-स्वामी का संबंध था, परंतु व्यवहार में यह लागू नहीं होता था। महादेवी उसकी कुछ आदतों से परेशान थीं, जिसकी वजह से यदा-कदा उसे घर चले जाने को कह देती थीं। इस आदेश को वह हँसकर टाल देती थी। दूसरे, वह नौकरानी कम, जीवन की धूप-छाँव अधिक थी। वह लेखिका की छाया बनकर घूमती थी। वह आने-जाने वाले, अँधेरे-उजाले और आँगन में फूलने वाले गुलाब व आम की तरह पृथक अस्तित्व रखती तथा हर सुख-दुख में लेखिका के साथ रहती थी।
प्रश्न 8:
लेखिका के परिचित के साथ भकितन केसा व्यवहार करती थी?
उत्तर –
लेखिका के पास अनेक साहित्यिक बंधु आते रहते थे, परंतु भक्तिन के मन में उनके लिए कोई विशेष सम्मान नहीं था। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थी जैसा लेखिका करती थी। उसके सम्मान की भाषा, लेखिका के प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर होती थी और सद्भाव उनके प्रति लेखिका के सद्भाव से निश्चित होता था। भक्तिन उन्हें आकार-प्रकार व वेश-भूषा से स्मरण रखती थी या किसी को नाम के अपभ्रंश द्वारा। कवि तथा कविता के संबंध में उसका ज्ञान बढ़ा है, पर आदरभाव नहीं।
प्रश्न 9:
भक्तिन के आने से लेखिका अपनी असुविधाएँ क्यों छिपाने लगीं?
उत्तर –
भक्तिन के आने से लेखिका के खान-पान में बहुत परिवर्तन आ गए। उसे मीठा, घी आदि पसंद था। उसके स्वास्थ्य को लेकर उसके परिवार वाले भी चिंतित रहते थे। घर वालों ने उसके लिए अलग खाने की व्यवस्था कर दी थी। अब वह मीठे व घी से विरक्ति करने लगी थी। यदि लेखिका को कोई असुविधा होती भी थी तो वह उसे भक्तिन को नहीं बताती थी। भक्तिन ने उसे जीवन की सरलता का पाठ पढ़ा दिया।
प्रश्न 10:
लछमिन को शहर क्यों जाना पड़ा?
उत्तर –
लछमिन के बड़े दामाद की मृत्यु हो गई। उसके स्थान पर परिवार वालों ने जिठाँत के साले को जबरदस्ती विधवा लड़की का पति बनवा दिया। पारिवारिक द्वेष बढ़ने से खेती-बाड़ी चौपट हो गई। स्थिति यहाँ तक आ गई कि लगान भी नहीं चुकाया गया। जब जमींदार ने लगान न पहुँचाने पर भक्तिन को दिनभर कड़ी धूप में खड़ा रखा तो उसके स्वाभिमानी हृदय को गहरा आघात लगा। यह उसकी कर्मठता के लिए सबसे बड़ा कलंक बन गया। इस अपमान के कारण वह दूसरे ही दिन कमाई के विचार से शहर आ गई।
प्रश्न 11:
कारागार के नाम से भक्तिन पर क्या प्रभाव पड़ता था?
उत्तर –
वह जेल जाने के लिए क्यों तैयार हो गई? भक्तिन को कारागार से बहुत भय लगता था। वह उसे यमलोक के समान समझती थी। कारागार की ऊँची दीवारों को देखकर वह चकरा जाती थी। जब उसे पता चला कि महादेवी जेल जा रही हैं तो वह उनके साथ जेल जाने के लिए तैयार हो गई। वह महादेवी के बिना अलग रहने की कल्पना मात्र से परेशान हो उठती थी।
प्रश्न 12:
महादेवी ने भक्तिन के जीवन को कितने परिच्छेदों में बाँटा?
उत्तर –
महादेवी ने भक्तिन के जीवन को चार परिच्छेदों में बाँटा जो निम्नलिखित हैं –
प्रथम – विवाह से पूर्व।
दवितीय – ससुराल में सधवा के रूप में।
तृतीय – विधवा के रूप में।
चतुर्थ – महादेवी की सेवा में।
प्रश्न 13:
भक्तिन की बेटी पर पचायत द्वारा पति क्यों थोपा गया?
उत्तर –
इस घटना के विरोध में दो तक दीजिए। भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा पति इसलिए थोपा गया क्योंकि भक्तिन की विधवा बेटी के साथ उसके ताऊ के लड़के के साले ने जबरदस्ती करने की कोशिश की थी। लड़की ने उसकी खूब पिटाई की परंतु पंचायत ने कोई भी तर्क न सुनकर एकतरफा फैसला सुना दिया। इसके विरोध में दो तर्क निम्नलिखित हैं –
प्रश्न 14:
‘भक्तिन’ अनेक अवगुणों के होते हुए भी महादेवी जी के लिए अनमोल क्यों थी?
उत्तर –
अनेक अवगुणों के होते हुए भी भक्तिन महादेवी वर्मा के लिए इसलिए अनमोल थी क्योंकि
प्रश्न 15:
महादवी वम और भक्तिन के सबधों की तीन विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर –
महादेवी वर्मा और भक्तिन के संबंधों की तीन विशिष्टताएँ निम्नलिखित हैं –
स्वर्य करें
प्रश्न:
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