Chapter 13 Organisms and Populations (जीव और समष्टियाँ)
अभ्यास के अन्तर्गत दिए गए प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
शीत निष्क्रियता (हाइबर्नेशन) से उपरति (डायपाज) किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर
शीत निष्क्रियता (Hibernation) – यह इक्टोथर्मल या शीत निष्क्रिय जन्तुओं (cold-blooded animals), जैसे-एम्फिबियन्स तथा रेप्टाइल्स की शरद नींद (winter sleep) है। जिससे वे अपने आपको ठंड से बचाते हैं। इसके लिए वे निवास स्थान, जैसे-खोह, बिल, गहरी मिट्टी आदि में रहने के लिए चले जाते हैं। यहाँ शारीरिक क्रियाएँ अत्यधिक मन्द हो जाती हैं। कुछ चिड़ियाँ एवं भालू के द्वारा भी शीत निष्क्रियता सम्पन्न की जाती है।
उपरति (Diapause) – यह निलंबित वृद्धि या विकास का समय है। प्रतिकूल परिस्थितियों में झीलों और तालाबों में प्राणिप्लवक की अनेक जातियाँ उपरति में आ जाती हैं जो निलंबित परिवर्धन की एक अवस्था है।
प्रश्न 2.
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (फ्रेशवाटर) की जलजीवशाला (एक्वेरियम) में रखा जाता है तो क्या वह मछली जीवित रह पाएगी? क्यों और क्यों नहीं?
उत्तर
अगर समुद्री मछली को अलवणजल (freshwater) की जल-जीवशाला में रखा जाए तो वह परासरणीय समस्याओं के कारण जीवित नहीं रह पाएगी तथा मर जाएगी। तेज परासरण होने के कारण रक्त दाब तथा रक्त आयतन बढ़ जाता है जिससे मछली की मृत्यु हो जाती है।
प्रश्न 3.
लक्षण प्ररूपी (फीनोटाइपिक) अनुकूलन की परिभाषा दीजिए। एक उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर
लक्षण प्ररूपी अनुकूलन जीवों का ऐसा विशेष गुण है जो संरचना और कार्यिकी की विशेषताओं के द्वारा उन्हें वातावरण विशेष में रहने की क्षमता प्रदान करता है। मरुस्थल के छोटे जीव, जैसे-चूहा, सॉप, केकड़ा दिन के समय बालू में बनाई गई सुरंग में रहते हैं तथा रात को जब तापक्रम कम हो जाता है तब ये भोजन की खोज में बिल से बाहर निकलते हैं। मरुस्थलीय अनुकूलन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ऊँट है। इसके खुर की निचली सतह,चौड़ी और गद्देदार होती है। इसके पीठ पर संचित भोजन के रूप में वसा एकत्रित रहती है जिसे हंप कहते हैं। भोजन नहीं मिलने पर इस वसा का उपयोग ऊँट ऊर्जा के लिए करता है। जल उपलब्ध होने पर यह एक बार में लगभग 50 लीटर जल पी लेता है जो शरीर के विभिन्न भागों में शीघ्र वितरित हो जाता है। उत्सर्जन द्वारा इसके शरीर से बहुत कम मात्रा में जल बाहर निकलता है। यह प्रायः सूखे मल का त्याग करता है।
प्रश्न 4.
अधिकतर जीवधारी 45° सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर जीवित नहीं रह सकते। कुछ सूक्ष्मजीव (माइक्रोब) ऐसे आवास में जहाँ तापमान 100° सेंटीग्रेड से भी अधिक है, कैसे जीवित रहते हैं?
उत्तर
सूक्ष्मजीवों में बहुत कम मात्रा में स्वतन्त्र जल रहता है। शरीर से जल निकलने से उच्च तापक्रम के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न होता है। सूक्ष्मजीवों की कोशाभित्ति में ताप सहन अणु तथा तापक्रम प्रतिरोधक एंजाइम्स भी पाए जाते हैं।
प्रश्न 5.
उन गुणों को बताइए जो व्यष्टियों में तो नहीं पर समष्टियों में होते हैं।
उत्तर
समष्टि (population) में कुछ ऐसे गुण होते हैं जो व्यष्टि (individual) में नहीं पाए जाते। जैसे व्यष्टि जन्म लेता है, इसकी मृत्यु होती है, लेकिन समष्टि की जन्मदर (natality) और मृत्युदर (mortality) होती है। समष्टि में इन दरों को क्रमशः प्रति व्यष्टि जन्मदर और मृत्युदर कहते हैं। जन्म और मृत्युदर को समष्टि के सदस्यों के सम्बन्धों में संख्या में वृद्धि का ह्रास (increase or decrease) के रूप में प्रकट किया जाता है। जैसे- किसी तालाब में गत वर्ष जल लिली के 20 पौधे थे और इस वर्ष जनन द्वारा 8 नए पौधे और बन जाते हैं तो वर्तमान में समष्टि 28 हो जाती है तो हम जनन दर की गणना 8/20 = 0.4 संतति प्रति जल लिली की दर से करते हैं। अगर प्रयोगशाला समष्टि में 50 फल मक्खियों में से 5 व्यष्टि किसी विशेष अन्तराल (जैसे- एक सप्ताह) में नष्ट हो जाती हैं तो इस अन्तराल में समष्टि में मृत्युदर 5/50 = 0.1 व्यष्टि प्रति फलमक्खी प्रति सप्ताह कहलाएगी।
समष्टि की दूसरी विशेषता लिंग अनुपात अर्थात् नर एवं मादा का अनुपात है। सामान्यतया समष्टि में यह अनुपात 50 : 50 होता है, लेकिन इसमें भिन्नता भी हो सकती है जैसे- समष्टि में 60 प्रतिशत मादा और 40 प्रतिशत नर हैं।
निर्धारित समय में समष्टि भिन्न आयु वाले व्यष्टियों से मिलकर बनती है। यदि समष्टि के सदस्यों की आयु वितरण को आलेखित (plotted) किया जाए तो इससे बनने वाली संरचना आयु पिरैमिड (age pyramid) कहलाती है। पिरेमिड का आकार समष्टि की स्थिति को प्रतिबिम्बित करता है
समष्टि का आकार आवास में उसकी स्थिति को स्पष्ट करता है। यह सजातीय, अन्तर्जातीय प्रतिस्पर्धा, पीड़कनाशी, वातावरणीय कारकों आदि से प्रभावित होता है। इसे तकनीकी भाषा में समष्टि घनत्व से स्पष्ट करते हैं। समष्टि घनत्व का आकलन विभिन्न प्रकार से किया जाता है।
किसी जाति के लिए समष्टि घनत्व (आकार) निश्चित नहीं होता। यह समय-समय पर बदलता रहता है। इसका कारण भोजन की मात्रा, परिस्थितियों में अन्तर, परभक्षण आदि होते हैं। समष्टि की वृद्धि चार कारकों पर निर्भर करती है जिनमें जन्मदर (natality) और आप्रवासन (immigration) समष्टि में वृद्धि करते हैं, जबकि मृत्युदर (death rate-mortality) तथा उत्प्रावसन (emigration) इसे घटाते हैं। यदि आरम्भिक समष्टि No है, Nt एक समय अन्तराल है तथा । बाद की समष्टि है तो
Nt = No + (B + I) – (D + E)
= No + B + 1 – D – E
समीकरण से स्पष्ट है कि यदि जन्म लेने वाले ‘B’ संख्या + अप्रवासी ‘1’ की संख्या (B + I) मरने वालों की संख्या ‘D’ + उत्प्रवासी ‘E’ की संख्या से अधिक है तो समष्टि घनत्व बढ़ जाएगा अन्यथा घट जाएगा।
प्रश्न 6.
अगर चरघातांकी रूप से (एक्स्पोनेन्शियली) बढ़ रही समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (r) क्या है?
उत्तर
चरघातांकी वृद्धि (Exponential growth) – किसी समष्टि की अबाधित वृद्धि उपलब्ध संसाधनों (आहार, स्थान आदि) पर निर्भर करती है। असीमित संसाधनों की उपलब्धता होने पर समष्टि में संख्या वृद्धि पूर्ण क्षमता से होती है। जैसा कि डार्विन ने प्राकृतिक वरण सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए प्रेक्षित किया था, इसे चरघातांकी अथवा ज्यामितीय (exponential or geometric) वृद्धि कहते हैं। अगर N साइज की समष्टि में जन्मदर ‘b’ और मृत्युदर ‘d’ के रूप में निरूपित की जाए, तब इकाई समय अवधि ‘t’ में समष्टि की वृद्धि या कमी होगी –
मान लीजिए (b – a) =r है, तब
‘r’ प्राकृतिक वृद्धि की इन्ट्रिन्जिक दर (intrinsicrate) कहलाती है। यह समष्टि वृद्धि पर जैविक या अजैविक कारकों के प्रभाव को निर्धारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण प्राचल (parameter) है। यदि समष्टि 3 वर्ष में दोगुने साइज की हो जाती है तो समष्टि की वृद्धि की इन्टिन्जिक दर 3r’ होगी।
प्रश्न 7.
पादपों में शाकाहारिता (हार्बिवोरी) के विरुद्ध रक्षा करने की महत्त्वपूर्ण विधियाँ बताइए।
उत्तर
प्रश्न 8.
ऑर्किड पौधा, आम के पेड़ की शाखा पर उग रहा है। ऑर्किड और आम के पेड़ के बीच पारस्परिक क्रिया का वर्णन आप कैसे करेंगे?
उत्तर
ऑर्किड पौधा तथा आम के पेड़ की शाखा सहभोजिता प्रदर्शित करता है। यह ऐसी पारस्परिक क्रिया है जिसमें एक जाति को लाभ होता है और दूसरी जाति को न लाभ और न हानि होती है। आम की शाखा पर अधिपादप के रूप में उगने वाले ऑर्किड को लाभ होता है जबकि आम के पेड़ को उससे कोई लाभ नहीं होता।
प्रश्न 9.
कीट पीड़कों (पेस्ट/इंसेक्ट) के प्रबन्ध के लिए जैव-नियन्त्रण विधि के पीछे क्या पारिस्थितिक सिद्धान्त है?
उत्तर
कृषि पीड़कनाशी के नियन्त्रण में अपनाई गई जैव नियन्त्रण विधियाँ परभक्षी की समष्टि नियमन की योग्यता पर आधारित हैं। परभक्षी, स्पर्धा शिकार जातियों के बीच स्पर्धा की तीव्रता कम करके किसी समुदाय में जातियों की विविधता बनाए रखने में भी सहायता करता है। परभक्षी पीड़कों का शिकार करके उनकी संख्या को उनके वास स्थान में नियन्त्रित रखते हैं। गेम्बूसिया मछली मच्छरों के लार्वा को खाती है और इस प्रकार कीटों की संख्या को नियन्त्रित रखती है।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित के बीच अन्तर कीजिए
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता (हाइबर्नेशन एवं एस्टीवेशन)
(ख) बाह्योष्मी और आन्तरोष्मी (एक्टोथर्मिक एवं एंडोथर्मिक)
उत्तर
(क) शीत निष्क्रियता और ग्रीष्म निष्क्रियता के बीच अन्तर
(ख) बाह्योष्मी और आन्तरोष्मी के बीच अन्तर
प्रश्न 11.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए –
(क) मरुस्थलीय पादपों और प्राणियों का अनुकूलन, (2018)
(ख) जल की कमी के प्रति पादपों का अनुकूलन,
(ग) प्राणियों में व्यावहारिक (बिहेवियोरल) अनुकूलन,
(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व,
(ङ) तापमान और जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन।
उत्तर
(क) 1. मरुस्थलीय पादपों के अनुकूलन इस प्रकार हैं –
2. मरुस्थलीय प्राणियों के अनुकूलन इस प्रकार हैं –
(ख) जल की कमी के प्रति पादपों में अनुकूलन- ये मरुस्थलीय पादप कहलाते हैं। अत: इनका अनुकूलन मरुस्थलीय पादपों के समान होगा।
(ग) प्राणियों में व्यावहारिक अनुकूलन इस प्रकार हैं –
(घ) पादपों के लिए प्रकाश का महत्त्व इस प्रकार है –
(ङ) 1. तापमान में कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन इस प्रकार है –
2. जल की कमी का प्रभाव तथा प्राणियों का अनुकूलन इस प्रकार है –
प्रश्न 12.
अजैवीय (abiotic) पर्यावरणीय कारकों की सूची बनाइए।
उत्तर
अजैवीय पर्यावरणीय कारक (Abiotic Environmental Factors) – विभिन्न अजैवीय कारकों को निम्नलिखित तीन समूहों में बाँट सकते हैं –
प्रश्न 13.
निम्नलिखित का उदाहरण दीजिए –
उत्तर
प्रश्न 14.
समष्टि (पॉपुलेशन) और समुदाय (कम्युनिटी) की परिभाषा दीजिए।
उत्तर
प्रश्न 15.
निम्नलिखित की परिभाषा दीजिए और प्रत्येक का एक-एक उदाहरण भी दीजिए –
उत्तर
प्रश्न 16.
उपयुक्त आरेख की सहायता से लॉजिस्टिक (सम्भार तन्त्र) समष्टि वृद्धि का वर्णन कीजिए।
उत्तर
प्रकृति में किसी भी समष्टि के पास इतने असीमित साधन नहीं होते कि चरघातांकी वृद्धि होती रहे। इसी कारण सीमित संसाधनों के लिए व्यष्टियों में प्रतिस्पर्धा होती है। आखिर में योग्यतम् व्यष्टि जीवित बना रहेगा और जनन करेगा। प्रकृति में दिए गए आवास के पास अधिकतम सम्भव संख्या के पालन-पोषण के लिए पर्याप्त संसाधन होते हैं, इससे आगे और वृद्धि सम्भव नहीं है। उस आवास में उस जाति के लिए इस सीमा को प्रकृति की पोषण क्षमता (K) मान लेते हैं।
किसी आवास में सीमित संसाधनों के साथ वृद्धि कर रही समष्टि आरम्भ में पश्चता प्रावस्था (लैग फेस) दर्शाती है। उसके बाद त्वरण और मंदन और अन्ततः अनन्तस्पर्शी प्रावस्थाएँ आती हैं। समष्टि घनत्व पोषण क्षमता प्रकार की समष्टि वृद्धि विर्हस्ट-पर्ल लॉजिस्टिक वृद्धि कहलाता है। इसे निम्न समीकरण के द्वारा निरूपित किया जाता है –
= rN =
जहाँ, N = समय t में समष्टि घनत्व,
r = प्राकृतिक वृद्धि की दर,
K = पोषण क्षमता।
प्रश्न 17.
निम्नलिखित कथनों में परजीविता को कौन-सा कथन सबसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है?
(क) एक जीव को लाभ होता है।
(ख) दोनों जीवों को लाभ होता है।
(ग) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित नहीं होता है।
(घ) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित होता है।
उत्तर
(घ) एक जीव को लाभ होता है, दूसरा प्रभावित होता है।
प्रश्न 18.
समष्टि की कोई तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताइए और व्याख्या कीजिए।
उत्तर
समष्टि की तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
व्याख्या (i) समष्टि आकार और समष्टि घनत्व – किसी जाति के लिए समष्टि का आकार स्थैतिक प्रायता नहीं है। यह समय-समय पर बदलता रहता है जो विभिन्न कारकों, जैसे- आहार उपलब्धती, परभक्षण दाब और मौसमी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। समष्टि घनत्व बढ़ रहा है। अथवा घट रहा है कारण कुछ भी हो, परन्तु दी गई अवधि के दौरान दिए गए आवास में समष्टि का घनत्व चार मूलभूत प्रक्रमों में घटता-बढ़ता है। इन चारों में से दो (जन्मदर और आप्रवासन) समष्टि घनत्व को बढ़ाते हैं और दो (मृत्युदर और उत्प्रवासन) इसे घटाते हैं।
अगर समय t में समष्टि घनत्व N है तो समय t + 1 में इसका घनत्व Nt + 1 = Nt + (B + I) – (D + E) होगा।
उपरोक्त समीकरण में आप देख सकते हैं कि यदि जन्म लेने वालों की संख्या + आप्रवासियों की संख्या (B + I) मरने वालों की संख्या + उत्प्रवासियों की संख्या (D + E) से अधिक है तो समष्टि घनत्व बढ़ जाएगा, अन्यथा यह घट जाएगा।
(ii) जन्मदर – यह साधारणत: प्रतिवर्ष प्रति समष्टि के 1000 व्यक्ति प्रति जन्म की संख्या द्वारा व्यक्त की जाती है। जन्मदर समष्टि आकार तथा समष्टि घनत्व को बढ़ाता है।
(iii) मृत्युदर – यह जन्मदर के विपरीत है। यह साधारणतः प्रतिवर्ष प्रति समष्टि के 1000 व्यक्ति प्रति मृत्यु की संख्या द्वारा व्यक्त की जाती है।
परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
स्पर्धा (competition) प्रभाव डालती है
(क) आबादी घनत्व पर
(ख) उत्पादन क्षमता पर
(ग) समुदाय विकास पर
(घ) इन सभी पर
उत्तर
(घ) इन सभी पर
प्रश्न 2.
खरपतवार वाले पौधे फसल वाले पौधों से स्पर्धा करते हैं –
(क) केवल स्थान के लिए।
(ख) स्थान और पोषण के लिये
(ग) स्थान, पोषण और प्रकाश के लिये
(घ) केवल प्रकाश के लिये
उत्तर
(ग) स्थान, पोषण और प्रकाश के लिये
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
निम्न का कारण स्पष्ट कीजिए (2015)
उत्तर
प्रश्न 2.
लवणमृदोभिद कहाँ पाये जाते हैं? इनके केवल दो मुख्य लक्षण लिखिए। (2016)
उत्तर
लवणमृदोभिद पौधे दलदली तटों पर पाये जाते हैं जहाँ के भूमि में लवणों की मात्रा अधिक होती है।
प्रश्न 3.
मरुदभिद पौधों में कांटे किसका रूपान्तरण हैं? (2016)
उत्तर
मरुभिद् पौधों (जैसे- नागफनी) में कांटे पत्तियों के रूपान्तर हैं।
प्रश्न 4.
जरायुजता (vivipary) क्या है ? (2009, 16, 17)
उत्तर
यह घटना राइजोफोरा (Rhizophora) पौधे में देखी जा सकती है। इस पौधे में बीज जब फल में ही होते हैं तथा पौधे पर लगे होते हैं तभी अंकुरण आरम्भ हो जाता है। जरायुजता मैंग्रोव (mangrove) वनस्पति की विशेषता होती है।
प्रश्न 5.
एक अलेग्यूमीनोसीय पौधे का नाम बताइए जिसमें मूल ग्रन्थियाँ होती हैं। (2011)
उत्तर
कैजुराइना (Casudrina), रूबस (Rubas) की जड़ ग्रन्थियों में माइकोबैक्टीरियम जीवाणु पाया जाता है।
प्रश्न 6.
उत्पादक तथा अपघटक में अन्तर कीजिए। (2017)
उत्तर
उत्पादक हरे पौधे होते हैं, जो प्रकाश-संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण करते हैं। अपघटक के अन्तर्गत सूक्ष्म जीव जैसे जीवाणु एवं कवक आते हैं जो मृत पौधों एवं जन्तुओं का अपघटन करते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
वनस्पति समूह को प्रभावित करने वाले किन्हीं दो पारिस्थितिक कारकों का उल्लेख कीजिए। (2017)
उत्तर
वनस्पति समूह को प्रभावित करने वाले दो पारिस्थितिक कारक निम्न हैं –
प्रश्न 2.
मृदा परिच्छेदिका पर टिप्पणी लिखिए। (2017)
उत्तर
मृदा परिच्छेदिका (Soil Profile) – मृदा के बनने व विकसित होने में अनेक क्रियाओं के फलस्वरूप मृदा स्तरीय बन जाती है। मृदा के इन स्तरों के अनुक्रम (sequence), रचनात्मक व स्थानीय लक्षणों तथा स्वभाव को मृदा परिच्छेदिका कहते हैं। मृदा परिच्छेदिका की प्रकृति जलवायु एवं क्षेत्र की वनस्पति पर निर्भर करती है। अधिकतर मृदा की खड़ी काट (vertical section) का अध्ययन करने पर इसमें 3 – 4 स्तर एवं अनेक उपस्तर पाये जाते हैं। सामान्य रूप से इसमें निम्नलिखित स्तर पाये जाते हैं –
1. संस्तर ओ (Horizon O) – यह सबसे ऊपरी स्तर है जो कार्बनिक पदार्थों का बना होता है। इसमें पूर्ण अपघटिते (completely decomposed), अनअपघटित (undecomposed), अर्धअपघटित (partially decomposed) तथा नये कार्बनिक पदार्थ मिलते हैं।
यह निम्न दो उपस्तरों का बना हो सकता है –
2. संस्तर ए (Horizon A) – ऊपरी सतह से मिला यह स्तर खनिज पदार्थों से भरपूर होता है। इसमें ह्यूमस भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। यह मुख्य रूप से बलूई मृदा (sandy soil) का बना होता है। इसमें उपस्थित घुलनशील लवण (soluble salts), लोहा (iron) आदि घुलकर नीचे की तरफ जाते रहते हैं। इसी कारण इस स्तर को अवक्षालन क्षेत्र (zone of eluviation) कहते हैं। अधिकांशतः पौधों की जड़े इसी स्तर में होती हैं।
3. संस्तर बी (Horizon B) – इसमें निक्षालन (leaching) के कारण चिकनी मिट्टी (clay soil), लोहा, ऐलुमिनियम आदि के ऑक्साइड एकत्रित होते हैं। इसको समपोट (illuviation) क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्र गहरे रंग का होता है। संस्तर ओ, ए तथा बी को मिलाकर उपरिमृदी (top soil) कहते हैं। संस्तर ए तथा बी खनिज मृदा (mineral soil) अथवा सोलम (solum) बनाते हैं।
4. संस्तर सी (Horizon C) – यह भी खनिज पदार्थों का स्तर है। इसमें चट्टानें तथा अपूर्ण रूप से अपक्षीय चट्टानें मिलती हैं। इस स्तर को अवमृदा (sub soil) भी कहते हैं।
5. संस्तर आर (Horizon R) – यह परिच्छेदिका का सबसे निचला स्तर होता है। इसमें अनपक्षीण (unweathered) जनक चट्टानें (parent bed rocks) होती हैं।
प्रश्न 3.
कीस्टोन जातियों से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए। (2010, 11, 12)
या
‘कीस्टोन प्रजातियाँ पर टिप्पणी लिखिए। (2009, 10, 15, 16)
उत्तर
कीस्टोन जातियाँ
प्रत्येक समुदाय में यद्यपि विभिन्न जातियाँ पायी जाती हैं, परन्तु समुदाय की सभी जातियाँ समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। एक या अधिक जातियाँ अन्य जातियों की तुलना में अधिक संख्या में, अधिक सुस्पष्टतया तथा अधिक क्षेत्र में फैली होती हैं। ये जातियाँ तेजी से वृद्धि करती हैं तथा समुदाय की अन्य जातियों की वृद्धि व संख्या का नियन्त्रण भी करती हैं।
इस प्रकार ये समुदाय की प्रमुख जाति या जातियाँ (dominant species) कहलाती हैं। अनेक बार यही जातियाँ, कीस्टोन जातियाँ (keystone species) कहलाती हैं, क्योंकि ये संख्या में अधिक होने के अतिरिक्त पर्यावरण को प्रमुखता से बदलने में सक्षम होती हैं। इस कारण से समुदाय का नाम भी इसी प्रमुख जाति या जातियों के नाम पर पड़ जाता है; जैसे–चीड़ वन, देवदार वन, चीड़-देवदार वन आदि।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि कीस्टोन जातियाँ (keystone species) या जातियों का पादप समुदाय की रचना में ही महत्त्वपूर्ण भाग नहीं होता वरन् यह उसके पर्यावरण को भी पूर्णतः प्रभावित करके रखती हैं। ये वहाँ की जलवायु को भी प्रभावित करती हैं। यहाँ तक कि ये अपने आस-पास के भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके अपना एक सूक्ष्म जलवायु क्षेत्र (microclimatic region) ही बना लेती हैं जो उस वृहत् जलवायु क्षेत्र (macroclimatic zone) से अत्यधिक भिन्न भी हो सकता है। एक स्वच्छ धूप वाले दिन किसी घने वृक्ष के नीचे तथा खुले क्षेत्र की जलवायु अर्थात् तापमान, आपेक्षिक आर्द्रता, प्रकाश तीव्रता (temperature, relative humidity, light intensity) आदि में तुलना की जा सकती है।
कीस्टोन जातियाँ मृदा की रचना, मृदा रसायन एवं खनिजों के स्तर, ह्युमस आदि को भी परिवर्तित तथा प्रभावित करने में सक्षम होती हैं। अनेक बार मृदा में उपस्थित सूक्ष्मजीव भी कीस्टोन जातियों के उदाहरण होते हैं, ऐसे में वे मृदा के पर्यावरण के साथ-साथ मृदा के बाहर के पर्यावरण को बदलने में भी पूर्ण प्रभाव रखती हैं।
ये जातियाँ भू-जैवीय-रासायनिक चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर, कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करके, ह्यूमस बढ़ाना, मृदा की उपजाऊ शक्ति बढ़ाना, जल को उपयोगी व प्राप्य जल के रूप में मृदा में स्थित रखना आदि अनेकानेक प्रभाव दिखाती हैं तथा ये प्रभाव मृदा पर जातियों को बसने, उन्हें भली-भाँति वृद्धि करने आदि के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करते, बल्कि इन प्रक्रियाओं में उनका पूर्ण सहयोग भी करते हैं।
कीस्टोन प्रजातियाँ सूक्ष्म जलवायु, मृदा की बनावट तथा मृदा रसायन एवं खनिजों के स्तर को भी प्रभावित और परिवर्तित करने में सक्षम होती हैं। इनके प्रतिकूल प्रभाव वहाँ के भौतिक पर्यावरण में शीघ्र ही दिखाई देने लगते हैं, जो वहाँ के समुदायों पर बाहरी समुदायों के आक्रमण के रूप में परिलक्षित होते हैं। ऐसे ही परिवर्तनों से किसी स्थान विशेष पर अनुक्रमण (succession) सम्पन्न होते हैं।
प्रश्न 4.
परभक्षी की परिभाषा लिखिए। परभक्षी तथा शिकार के बीच अन्तःक्रिया का वर्णन कीजिए। (2010)
या
परभक्षी पर टिप्पणी लिखिए। (2014)
उत्तर
परभक्षी (शिकारी) तथा भक्ष्य (शिकार)
किसी पारिस्थितिक तन्त्र (ecosystem) के जैवीय तथा अजैवीय घटकों (biotic and abiotic components) के आपसी सम्बन्ध, चक्रण आदि पर ही उस पारितन्त्र के सन्तुलन का अस्तित्व है। जैवीय घटकों के आपसी सम्बन्ध, ऊर्जा तथा पोषक पदार्थों के प्रवाह को सुनिश्चित करते हैं। जैवीय घटकों में तीन प्रकार के जीव प्रमुख हैं- उत्पादक (producers), उपभोक्ता (consumers) तथा अपघटक (decomposers)।
उपभोक्ता विभिन्न श्रेणियों (orders) के यथा शाकाहारी (herbivores), मांसाहारी (carnivores) या सर्वाहारी (Omnivores) होते हैं। इनमें भी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता सदैव शाकाहारी होते हैं और अपने पोषण के लिए उत्पादकों (producers) पर निर्भर करते हैं। . शाकाहारी जन्तु अगली श्रेणी के उपभोक्ताओं के लिए खाद्य पदार्थों को अपने अन्दर संचित करते हैं।
चूंकि ये जीव प्राय: जन्तु (animals) ही होते हैं अतः द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं (consumers of second order) को तो इनको किसी न किसी प्रकार पकड़कर अथवा शिकार करके ही अपना खाद्य बनाना होगा। स्पष्ट है यह मांसाहारी (carnivore) जो अपने शिकार या भक्ष्य (prey) को मार कर अपना भोजन बनाता है शिकारी या परभक्षी (predator) कहलाता है।
परभक्षी तथा भक्ष्य के मध्य अन्तर्सम्बन्ध
पारितन्त्र में परभक्षी तथा भक्ष्य के सम्बन्ध निश्चित होते हैं तथा यह परस्पर दोनों की जनन शक्ति, भक्षण बारम्बारता, दोनों के आकार-परिमाप तथा रुचियों पर निर्भर करते हैं। परभक्षी एकाहारी (monophagous), अल्पभक्षी (oligophagous) अथवा विविध भक्षी (polyphagous) हो सकते हैं। कुछ भी हो परभक्षी भक्ष्य की जनसंख्या को क्रम से खाकर कम करने का अनायास प्रयास करता रहता है; उदाहरण के लिए सर्यों की उपस्थिति में चूहों की संख्या बहुत कम हो जाती है।
इसी प्रकार, एक घास के मैदान के पारितन्त्र में मेढकों की संख्या सर्यों द्वारा नियन्त्रित रहती है। यहाँ यह भी विशिष्ट है कि एक पारितन्त्र में भक्ष्य तथा परभक्षी की संख्या सन्तुलित रहती है। यह सन्तुलन, भक्ष्य को कितने प्रकार के परभक्षी अपना शिकार बनाते हैं तथा कितने अन्तराल के बाद कोई परभक्षी भक्ष्य का शिकार करता है, इन दोनों बातों के अतिरिक्त सामान्य परिस्थितियों में भक्ष्य उस पारितन्त्र में अपनी जनसंख्या को कितनी शीघ्रता से बढ़ा सकते हैं, पर निर्भर करता है।
एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो सकती है-किसी जैव समुदाय में एक एकाहारी (monophagous) परभक्षी अर्थात् एक ही भक्ष्य पर निर्भर परभक्षी के लिए भक्ष्य काफी संख्या में उपलब्ध हैं। परभक्षी एक के बाद एक अपने भक्ष्यों का भक्षण करता जाता है; भक्ष्यों की संख्या स्पष्टतः कम होती जाती है, अब परभक्षी भूखे मरेंगे क्योंकि और तो कुछ वे खायेंगे ही नहीं, कुछ अपने भक्ष्य की खोज में अपने जैव समुदाय को ही छोड़ जायेंगे। इधर परभक्षियों की संख्या कम हुई तो भक्ष्यों की संख्या वृद्धि प्रोत्साहित होगी।
इनकी संख्या बढ़ने से परभक्षियों की संख्या वृद्धि का वातावरण तैयार करेगा। इस प्रकार भक्ष्य व परभक्षियों का संख्या घनत्व निश्चित रह सकता है। यहाँ यह आवश्यक रूप से निहित है कि प्रायः परभक्षी उच्चतम परभक्षी को छोड़कर भी तो किसी अन्य का भक्ष्य है।
प्रश्न 5.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए – स्पर्धा (प्रतिस्पर्धा) (2014,15)
उत्तर
स्पर्धा (प्रतिस्पर्धा)
जब डार्विन ने प्रकृति में जीवन-संघर्ष और योग्यतम की उत्तरजीविता के बारे में कहा तो वह निश्चयी था कि जैव विकास में अंतरजातीय स्पर्धा एक शक्तिशाली बल है। जीवों के बीच स्थान, भोजन, जल, खनिज लवण, सम्भोग साथी तथा अन्य संसाधनों के लिए स्पर्धा होती है। जब यह स्पर्धा एक ही जाति के सदस्यों के बीच होती है तब इसे अन्तरजातीय स्पर्धा (interspecific competition) कहते हैं तथा जब स्पर्धा विभिन्न प्रजाति के जीवों के बीच होती है। तब इसे अन्तराजातीय स्पर्धा (intraspecific competition) कहते हैं। इस प्रकार स्पर्धाएँ निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं –
(i) अन्तराजातीय स्पर्धा (Intraspecific Competition) – इस प्रकार की स्पर्धा भिन्न-भिन्न जातियों (species) के सदस्यों के बीच एक ही प्रकार के संसाधनों (resources) का उपयोग करने के कारण उत्पन्न होती है।
उदाहरण – जन्तुओं में परभक्षी-भक्ष्य (predator-prey) के सम्बन्ध में विभिन्न परभक्षी (predators) जन्तु अपने भक्ष्य (prey) को पाने के लिए स्पर्धा करते हैं। पौधों में विभिन्न प्रजातियाँ प्रकाश (light), पोषक पदार्थों (nutrients), वास स्थलों (habitats) के लिए आपस में स्पर्धा करती रहती हैं।
(ii) अन्तरजातीय स्पर्धा (Interspecific Competition) – इस प्रकार की स्पर्धा एक ही जाति (species) के सदस्यों के बीच पाई जाती है जिसमें एक ही जाति के विभिन्न सदस्य, आवास, भोजन, सहवास सदस्य आदि के लिए आपस में स्पर्धा करते हैं।
उदाहरण – फसल का मैदान जहाँ एक ही जाति के पौधों के बीच सीमित संसाधनों के कारण इस प्रकार की स्पर्धा पाई जाती है।
प्रश्न 6.
सहोपकारिता (परस्परता) किसे कहते हैं? उदाहरण देकर इसको स्पष्ट कीजिए। (2017, 18)
उत्तर
सहोपकारिता (Mutualism) – यह दो भिन्न प्रजाति के जीवों के बीच पाया जाने वाला सहजीवी (symbiotic) सम्बन्ध होता है जिसमें दोनों जीवों को परस्पर लाभ (benefit) होता है। कवक और प्रकाश-संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया के बीच घनिष्ठ सहोपकारी सम्बन्ध का उदाहरण लाइकेन में देखा जा सकता है। इसी प्रकार कवकों और उच्चकोटि पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (माइकोराइजी) साहचर्य है। कवक मृदा से अत्यावश्यक पोषक तत्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं, जबकि बदले में पादप कवकों को ऊर्जा-उत्पादी कार्बोहाइड्रेट देते हैं। इसी प्रकार लेग्यूम-राइजोबियम सह-सम्बन्ध है।
सहोपकारिता के सबसे शानदार और विकास की दृष्टि से लुभावने उदाहरण पादप-प्राणी सम्बन्ध में पाए जाते हैं। पादपों को अपने पुष्प परागित करने और बीजों के प्रकीर्णन के लिए प्राणियों की सहायता चाहिए। स्पष्ट है कि पादप को जिन सेवाओं की अपेक्षा प्राणियों से है उसके लिए शुल्क तो देना होगा। पुरस्कार अथवा शुल्क के रूप में ये परागणकारियों को पराग और मकरंद तथा प्रकीर्णकों को रसीले और पोषक फल देते हैं।
लेकिन परस्पर लाभकारी तंत्र की ‘धोखेबाजी’ से रक्षा होनी चाहिए, उदाहरण के लिए, ऐसे प्राणी जो परागण में सहायता किए बिना ही मकरंद चुराते हैं। अब आप देख सकते हैं कि पादप-प्राणी पारस्परिक क्रिया में सहोपकारियों के लिए प्राय: सह-विकास’ क्यों शामिल है, अर्थात् पुष्प और इसके परागणकारी जातियों के विकास एक-दूसरे से मजबूती से जुड़े हुए हैं।
अंजीर के पेड़ों के अनेक जातियों में बर्र की परागणकारी जातियों के बीच मजबूत सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह है कि कोई दी गई अंजीर जाति केवल इसके साथी’ बर्र की जाति से ही परागित हो सकती है, बर्र की दूसरी जाति से नहीं। मादा बर्र फल को न केवल अंडनिक्षेपण के लिए काम में लेती है; बल्कि फल के भीतर ही वृद्धि कर रहे बीजों को डिंबकों के पोषण के लिए प्रयोग करती है।
अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थल की तलाश करते हुए बर्र अंजीर पुष्पक्रम को परागित करती है। इसके बदले में अंजीर अपने कुछ परिवर्धनशील बीज, परिवर्धनशील बर्र के डिंबंकों को, आहार के रूप में देता है।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए
उत्तर
1. परजीविता
ये विषमपोषी (heterotrophic) जीव हैं जो अपने परपोषी (host) के शरीर से आहार प्राप्त करते हैं। परजीवी विकल्पी (facultative) तथा अविकल्पी (obligate) दो प्रकार के हो सकते हैं। विकल्पी परजीवी मुख्यत: मृतोपजीवी (saprophytic) होते हैं, जो विशेष परिस्थितियों में ही परजीवी बनते हैं; जैसे-अधिकांश कवक या जीवाणु। अविकल्पी परजीवी, परपोषी (host) के परभक्षी (predator) होते हैं। कुछ आवृतबीजी (angiosperms) भी परजीवी स्वभाव को व्यक्त करते हैं, जैसे- कुस्कुटा (Cuscuta) – पूर्ण तना परजीवी; विस्कम (Viscum) तथा लोरेन्थस (Loranthus) – आंशिक तना परजीवी, रेफ्लेसिया (Rufflesia) और औरोबैकी (Orobanchae) – पूर्ण जड़ परजीवी; सैन्टेलम एलबम (Suntalum album) – आंशिक जड़ परजीवी है।
2. सहभोजिता
यह दो जीवों के बीच परस्पर सम्बन्ध है जिसमें एक जीव को लाभ होता है और दूसरे जीव को न हानि न लाभ होता है। आम की शाखा पर अधिपादप के रूप में उगने वाला ऑर्किड और हेल की पीठ को आवास बनाने वाले बार्नेकल को लाभ होता है जबकि आम के पेड़ और ह्वेल को उनसे कोई लाभ नहीं होता। पक्षी बगुला और चारण पशु निकट साहचर्य में रहते हैं। सहभोजिता का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। जहाँ पशु चरते हैं उसके पास ही बगुले भोजन प्राप्ति के लिए रहते हैं क्योंकि जब पशु चलते हैं तो वनस्पति को हिलाते हैं और उसमें से कीट बाहर निकलते हैं। बगुले उन कीटों को खाते हैं अन्यथा वानस्पतिक कीटों को ढूंढ़ना और पकड़ना बगुले के लिए कठिन होता। सहभोजिता का दूसरा उदाहरण समुद्री ऐनिमोन दंशन स्पर्शक हैं, जिसमें उनके बीच क्लाउन मछली रहती है। मछलियों को परभक्षियों से सुरक्षा मिलती है जो दंशन स्पर्शकों से दूर रहते हैं। क्लाउन मछली से ऐनिमोन को कोई लाभ मिलता हो ऐसा नहीं लगती।
3. सहजीवन
यह दो भिन्न प्रजाति के जीवों के बीच पाया जाने वाला सहजीवी (Symbiotic) सम्बन्ध होता है। जिसमें दोनों जीवों को परस्पर लाभ (benefit) होता है। कवक और प्रकाश संश्लेषी शैवाल या सायनोबैक्टीरिया के बीच घनिष्ठ सहोपकारी सम्बन्ध का उदाहरण लाइकेन में देखा जा सकता है। इसी प्रकार कवकों और उच्चकोटि पादपों की जड़ों के बीच कवकमूल (माइकोराइजी) साहचर्य है। कवक, मृदा से अत्यावश्यक पोषक तत्त्वों के अवशोषण में पादपों की सहायता करते हैं जबकि बदले में पादप, कवकों को ऊर्जा-उत्पादी काबोहाइड्रेट देते हैं।
विस्तृत उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
अनुकूलन को परिभाषित कीजिए। अनुकूलन में होने वाले परिवर्तन का विस्तार से वर्णन कीजिए। उदाहरण सहित विभिन्न प्रकार के अनुकूलन का वर्णन कीजिए। (2015)
या
मैन्ग्रोव वनस्पतियाँ कहाँ पायी जाती हैं? इनकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए। (2014)
या
मैन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण (जरायुजता) एक विशिष्ट अनुकूलन है। स्पष्ट कीजिए। (2017)
या
टिप्पणी लिखिए-मैन्ग्रोव वनस्पति। (2014, 15)
उत्तर
अनुकूलन
पौधों की बाह्य आकारिकी तथा आन्तरिक संरचना (external morphology and internal structure) पर उनके वातावरण का प्रभाव पड़ता है। पौधों में अपने आपको वातावरण में समायोजित करने की सामर्थ्य होती है जिसे अनुकूलन (adaptation) कहते हैं। दूसरे शब्दों में पौधों में अनुकूलन से तात्पर्य उन विशेष बाह्य अथवा आन्तरिक लक्षणों से है जिनके कारण पौधे किसी विशेष वातावरण में रहने, वृद्धि करने, फलने-फूलने तथा प्रजनन के लिए पूर्णतया सक्षम होते हैं और अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं। इन विशेष पारिस्थितिकीय अनुकूलनों तथा आवास के आधार पर पौधों को भिन्न पारिस्थितिक समूहों में रखा गया है जो निम्नलिखित चार हैं –
I. जलोभिद पौधों में अनुकूलन
(A) जलोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन
2. तनों में अनुकूलन
3. पत्तियों में अनुकूलन
4.पुष्प व बीज में अनुकूलन
जलनिमग्न पौधों में प्राय: पुष्प उत्पन्न नहीं होते, जहाँ पर पुष्प उत्पन्न होते हैं, उनमें बीज नहीं बनते।
(B) जलोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
जलीय पौधों के विभिन्न भागों की आन्तरिक रचना (शारीरिकी) में निम्न विशेषताएँ या अनुकूलन पाए जाते हैं –
1. बाह्यत्वचा (Epidermis) – बाह्यत्वचा प्रायः मृदूतक कोशिकाओं की बनी इकहरी परत के रूप में होती है। इस पर उपत्वचा (cuticle) नहीं होती, परन्तु तैरने वाली पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा पर मोमीय परत (उदाहरण- जलकुम्भी, Nymphaea) अथवा रोमिल परत (उदाहरण- साल्विनिया- Salvyinic) होती है। बाह्यत्वचा की कोशिकाओं में प्रायः पर्णहरिम (chlorophyll) पाया जाता है। टाइफा (Typha) में बाह्यत्वचा पर उपचर्म (cuticle) की परत होती है।
2. रन्ध्र (Stomata) – जलनिमग्न (submerged) पौधों में रन्ध्र प्रायः अनुपस्थित होते हैं। तैरक (floating) पौधों में रन्ध्र प्रायः पत्ती की ऊपरी सतह तक ही सीमित रहते हैं; जबकि
जलस्थलीय (amphibious) पौधों की जल से बाहर निकली पत्तियों में रन्ध्र दोनों सतहों पर होते हैं।
3. अधस्त्वचा (Hypodermis) – जलनिमग्न पौधों, उदाहरण-हाइड्रिलो (Hydrilla) तथा पोटामोजेटोन (Potamogeton) के तनों में अधस्त्वचा अनुपस्थित होती है, यद्यपि कुछ तैरक (floating) पौधों व जलस्थलीय (amphibious) पौधों में यह मोटी भित्ति वाली मृदूतकीय कोशिकाओं के रूप में अथवा स्थूलकोण ऊतक के रूप में होती है।
4. यान्त्रिक ऊतक (Mechanical Tissue) – जलोभिदों में यान्त्रिक ऊतक प्राय: अनुपस्थित अथवा बहुत कम विकसित होता है।
5. वल्कुट (Cortex) – जड़ व तनों में वल्कुट (cortex) सुविकसित होता है तथा पतली भित्ति की मृदूतक कोशिकाओं का बना होता है। वल्कुट (cortex) के अधिकांश भाग में बड़ी-बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) उत्पन्न हो जाती हैं। इस ऊतक को वायूतंक (aerenchyma) कहते हैं। वायु-गुहिकाओं में भरी वायु के कारण, गैसीय विनिमय सुलभ हो जाता है, पौधे हल्के हो जाते हैं, ताकि पानी में ठहर सकें। इसके अतिरिक्त यह अंगों के मुड़ने के तनाव का प्रतिरोध (resistance to bending stress) भी करता है।
6. पत्तियों में पर्णमध्योतक (Mesophyll Tissue in Leaves) – जलनिमग्न पत्तियों में पर्णमध्योतक अभिन्नित (undifferentiated) होता है। तैरक पत्तियों, जैसे-जलकुम्भी (Nymphaea) में यह खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में भिन्नत होता है, इसमें बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) भी पाई जाती हैं।
7. संवहन बण्डल (Vascular Bundle) – संवहन ऊतक कम विकसित होता है। जलनिमग्ने पौधों में यह कम भिन्नित होता है। जाइलम में प्रायः वाहिकाएँ (tracheids) ही उपस्थित होती हैं, वाहिनिकाएँ (vessels) कम होती हैं, यद्यपि जलस्थलीय (amphibious) पौधों में संवहन बण्डल अपेक्षाकृत अधिक विकसित तथा जाइलम व फ्लोएम में भिन्नत होते हैं।
(C) कुछ अन्य अनुकूलन
II. शुष्कोभिद् = मरुभिद् पौधों में अनुकूलन
इसका अध्ययन विस्तृत उत्तरीय प्रश्न संख्या 2 के उत्तर में करें।
III. मध्योदभिद् = समोदभिद् पौधों में अनुकूलन
मध्योभिद पौधे उन स्थानों पर उगते हैं, जहाँ की जलवायु न तो बहुत शुष्क है और न ही बहुत नम है। तथा ताप व वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता (relative humidity) भी साधारण होती है। ये पौधे शाक, झाड़ी तथा वृक्ष सभी रूपों में होते हैं, उदाहरण-गेहूँ, चना, मक्का, गुड़हल, आम, शीशम, जामुन आदि, यद्यपि इन पौधों में जलोभिद् तथा मरुभिद् पौधों की भाँति विशिष्ट रचनात्मक या क्रियात्मक अनुकूलन तो नहीं होते, परन्तु कुछ अर्थों में ये जलोभि व मरुभिद् पौधों के बीच की स्थिति रखते हैं। इनके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
IV. लवणोदभिद् पौधों में अनुकूलन
(A) लवणोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
लवणोभिद् पौधों को मैन्ग्रोव वनस्पतियाँ भी कहते हैं। इनके विभिन्न भागों की बाह्य रचना में निम्नलिखित विशेषताएँ अथवा अनुकूलन प्रमुख हैं –
1. जड़ (Root) – जड़े दो प्रकार की होती हैं- वायवीय (aerial) तथा भूमिगत (subterranean)। वायवीय जड़े दलदल से बाहर सीधी निकल जाती हैं और ख़ुटी जैसी रचनाओं के रूप में दिखाई देती हैं। ये जड़े ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षी (negatively geotropic) होती हैं तथा इन पर अनेक छिद्र होते हैं। ये जड़े श्वसन का कार्य करती हैं, इन्हें श्वसन मूल (pneumatophores) कहते हैं, उदाहरण-सोनेरेशिया (Sonnerutia) तथा एवीसीर्निया (Avicennia), आदि। श्वसन मूलों द्वारा ग्रहण की गई ऑक्सीजन न केवल जलनिमग्न जड़ों के काम आती है, बल्कि इसे उस रुके लवणीय जल में रहने वाले जन्तु भी प्रयुक्त करते हैं। राइजोफोरा में प्रॉप मूल (prop roots) भी होती है जो पौधे को दलदल वाली भूमि में स्थिर रखती है।
2. तना (Stem) – तने प्रायः मोटे, मांसल व सरसे होते हैं।
3. पत्तियाँ (Leaves) – पत्तियाँ प्रायः मोटी व सरस होती हैं। ये सदाहरित (evergreen) होती हैं। कुछ पौधों में ये पतली तथा छोटी होती हैं।
4. पितृस्थ अंकुरण (Vivipary) – मैन्ग्रोव पौधों में पितृस्थ अंकुरण एक विशिष्ट अनुकूलन है। प्रायः बीजों को अंकुरित होने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। लवणीय दलदल में ऑक्सीजन की कमी होती है। अत: बीज, मातृ पौधे पर फल के अन्दर रहते हुए ही अंकुरित हो जाते हैं। इस गुण को पितृस्थ अंकुरण (vivipary) कहते हैं।
(B) लवणोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन
जड़ की आन्तरिक रचना में निम्न अनुकूलन या विशेषताएँ पाई जाती हैं –
2. तनों में अनुकूलन
तने की आन्तरिक रचना में निम्नलिखित अनुकूलन या विशेषताएँ होती हैं –
3. पत्तियों में अनुकूलन
पत्ती की आन्तरिक रचना में निम्नलिखित अनुकूलन या विशेषताएँ होती हैं।
प्रश्न 2.
मरुदभि क्या हैं? इनके आकारिकीय एवं आन्तरिक लक्षणों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए। (2013)
या
मरुदभिद् पौधों के लक्षण लिखिए। (2011, 14)
या
मरुभिद् पौधों के विभिन्न आकारीय अनुकूलनों का वर्णन कीजिए।(2009, 10, 11, 18)
या
नागफनी एक मरुदभि है। कारण सहित व्याख्या कीजिए। (2015)
उत्तर
मरुभिद्
शुष्क आवास स्थल पर पाई जाने वाली वनस्पति को शुष्कोभिद् या मरुद्भिद् (xerophytes) कहते हैं। ऐसे वासस्थलों में जल की अत्यधिक कमी पायी जाती है। इस प्रकार के पादप लम्बी अवधि के शुष्क अनावृष्टि काल में भी जीवित रह सकते हैं। अतः इनमें जलाभाव की अत्यधिक सहिष्णुता होती है। अत्यधिक मात्रा में जल उपलब्ध होने के पश्चात् भी जल पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाता। इस प्रकार के आवास कार्यिकी दृष्टि से शुष्क (physiologically dry) होते हैं। शुष्क आवास स्थल भी निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –
1. भौतिक दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physically Dry Habitat) – ऐसे स्थलों की मृदा में जल को धारण करने व इसे रोके रखने की क्षमता बहुत ही कम होती है तथा वहाँ की जलवायु भी शुष्क पाई जाती है; जैसे- मरुस्थल व व्यर्थ भूमि, चट्टानी सतह इत्यादि।
2. कार्यिकी दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physiologically Dry Habitat) – ऐसे आवास स्थलों पर जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है परन्तु पौधे सुगमता से इसका अवशोषण या उपयोग नहीं कर पाते हैं; जैसे–अत्यधिक लवणीय या अम्लीय या ठण्डे स्थान। अत्यधिक लवणीय या अम्लीय अवस्था तथा जल के बर्फ रूप में रहने के कारण पौधे जल का अवशोषण नहीं कर पाते।
3. भौतिक व कार्यिकी दृष्टि से शुष्क आवास स्थल (Physically and Physiologically Dry Habitat) – कुछ स्थल ऐसे होते हैं जहाँ न तो जल धारण की क्षमता उपलब्ध होती है और न ही पौधे उसका उपयोग करने में सक्षम होते हैं अतः ऐसे आवास स्थल कार्यिकी व भौतिक दृष्टि से शुष्क आवास स्थल होते हैं। जैसे–पर्वतों की ढलानें। नागफनी के पौधे में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं जिसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि यह एक मरुद्भिद् है।
आकारिकीय लक्षण
1. मूल (Root) – मरुभिद् पादप जलाभाव वाले स्थानों पर पाये जाते हैं अतः जल प्राप्त करने के लिए इनका मूल तन्त्र अत्यधिक विकसित होता है। इनमें पाये जाने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं –
(i) जड़े सुविकसित तथा भूमि में चारों तरफ फैली हुई रहती हैं। जड़े प्राय: मूसला (tap root) होती हैं तथा भूमि में गहराई तक जाती हैं और इनकी शाखाओं का मृदा में एक विस्तृत जाल फैला रहता है। अनेक मरुस्थलीय पौधों में मूल केवल भूमि की ऊपरी सतहों में ही रहती हैं परन्तु ऐसा एकवर्षीय या छोटे शाकीय पौधों या मांसल पादपों में ही होता है।
ओपेनहाइमर (Oppenheimer, 1960) के अनुसार प्रोसोपिस अल्हेगी (Prosophis athagi) की जड़े 20 मीटर तथा अकेशिया (Acacid) और टेमेरिक्स (Tamarix) के वृक्षों की जड़े भूमि में 30 मीटर की गहराई तक पहुँच जाती हैं।
(ii) जड़ों की वृद्धि दर अधिक होती है। यह 10 से 50 सेमी प्रति दिन तक की होती है। शैलोभिद् पादपों की जड़े चट्टानों के ऊपर और अन्दर भी वृद्धि करने में सक्षम होती हैं।
(iii) जड़ों में मूल रोम (root hairs) और मूल गोप (root cap) सुविकसित होते हैं जिससे ये पौधे भूमि से अधिक से अधिक जल का अवशोषण करने में सक्षम होते हैं।
(iv) इन पादपों में जड़ों की अत्यधिक वृद्धि होने के फलस्वरूप जड़ एवं प्ररोह की लम्बाई का अनुपात root and shoot ratio) 3 से 10 तक का पाया जाता है।
2. स्तम्भ (Shoot) – मरुद्भिद् पौधों के स्तम्भ में अनेक प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं क्योंकि इसे वहाँ के वायव पर्यावरण को भी सहन करना पड़ता है। इनमें पाये जाने वाले लक्षण निम्न प्रकार हैं –
3. पत्तियाँ (Leaves) – इन पौधों की पत्तियों में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं –
(i) अनेक मरुभिद् पादपों की पत्तियाँ प्रारम्भ में ही लुप्त हो जाती हैं और इस प्रकार से इनमें पत्तियाँ पर्णपाती तथा आशुपाती (caducous) लक्षणों वाली होती हैं, जैसे-लेप्टेडीनिया (Laptadenia), केर (Capparis)। किन्तु कुछ में पत्तियों रूपान्तरित होकर कॅटीले रूप भी धारण कर लेती हैं, जैसे- नागफनी (Opuntia) या शल्क पर्ण में परिवर्तित हो जाती हैं, जैसे-रसकस (Ruscus), ऐसपेरेगस (Asparagus), केज्यूराइना (Casudrina), मूहलनबेकिया (Muehelenbeckia) इत्यादि। ये समस्त रूपान्तरण कुल मिलाकर पौधे की वाष्पोत्सर्जन दर को कम करते हैं।
(ii) प्रायः पत्तियों का आकार छोटा होता है तथा जिन पौधों की पत्तियों का आकार बड़ा होता है उनकी सतह चिकनी व चमकदार होती है, जिससे प्रकाश परिवर्तित हो जाता है। फलस्वरूप पत्ती का तापक्रम कम हो जाने से वाष्पोत्सर्जन की क्रिया भी मंद होती है। चीड़ (Pinus) की पत्तियों का आकार तो सूजाकार (needle like) होता है।
(iii) पत्तियों की सतह पर मोम (wax), सिलिका की परतें आवरित रहती हैं और कभी – कभी उपत्वचा कोशिकाओं में टेनिन और गोंद पाये जाते हैं।
(iv) मरुस्थलीय क्षेत्रों में तेज गति वाली हवाएँ बहती रहती हैं, ऐसे स्थानों पर पाये जाने वाले मरुभिद् पादपों की पत्तियों की सतह बहुकोशीय रोमों (hairs) से ढकी रहती है, जैसे- कनेर (Nerium), आरनिबिया (Armebid), मदार (Calotropis) इत्यादि। ये रन्ध्र वाष्पोत्सर्जन की दर को न्यून करते हैं। ऐसे मरुभिद् जिनकी पत्तियों पर अधिक संख्या में रोम पाये जाते हैं उन्हें रोमपर्णी पादप (trichophyllous plants) कहते हैं।
(v) मरुद्भिद् पादपों की पत्तियों का आकार अर्थात् पर्ण फलक (leaf blade) छोटा हो जाता है; जैसे- बबूल (Acacid), खेजड़ा (Prosopis) तथा पर्ण शिराओं को एक गहरा जाल बिछा रहता है। विलायती कीकर (Parkinsonia aculeata) के पर्णक (leaflate) अधिक छोटे होते हैं किन्तु इसका रेकिस (rachis) मोटा और चपटा होता है। तेज धूप के समय यह किस पर्णकों को ताप से बचाता है।
(vi) ऑस्ट्रेलियन बबूल (Acacid melanoxylon) में जल की हानि को रोकने के लिए द्विपिच्छकी संयुक्त पर्ण (bipinnate compound leaf) सूखकर गिर जाती है परन्तु इसका पर्णवृन्त चपटा और पत्ती के समान हरा हो जाता है। पत्ती के इस चपटे और हरे वृन्त को पर्णाभ वृन्त (phyllode) कहते हैं। ये पर्णाभ वृन्त जल का संग्रह और प्रकाश संश्लेषण का कार्य करते हैं तथा वाष्पोत्सर्जन की दर को अत्यधिक कम कर देते हैं।
(vii) मरुभिद् पादपों में पाई जाने वाली चौड़ी पत्तियाँ मोटी, गूदेदार या मांसल व चर्मल (leathery) होती हैं; जैसे-साइकस (Cycas)
(viii) कुछ पादपों में पत्तियों के अनुपर्ण काँटों में रूपान्तरित हो जाते हैं; जैसे- बेर (Ziyphus jujuba), बबूल (Acacia nilotica), केर (Capparis decidua), खेजड़ा (Prosopis)
आदि।
(ix) कुछ एकबीजपत्री मरुभिद् पौधे; जैसे-पोआ (Pou) और सामा (Psamma) घास और एमोफिला (Ammophilla) व एगरोपाइरोन (Agropyron) की पत्तियाँ जलाभाव के समय गोलाई में लिपट जाती हैं। एक्टिनोप्टेरिस (Actinopteris), एसप्लियम (Asepteum) में भी जलाभाव के समय पत्तियाँ नलिकाकार होकर पर्णवृन्त पर लिपट जाती हैं। इन पौधों की पत्तियों की ऊपरी अधिचर्म में बड़ी आकृति की मृदूतक कोशिकाएँ होती हैं जिन्हें हिंज या मोटर या बुलीफार्म या आवर्धक कोशिकाएँ (hing or motor or bulliform cells) कहते हैं। इन्हीं कोशिकाओं के कारण पत्तियाँ गोलाई में लिपट
जाती हैं, इस प्रकार शुष्कता से रक्षा करती हैं। इसी प्रकार शुष्कता के समय कुछ पौधों से शाखाएँ कुण्डली मारकर गेंद की जैसे सिमट जाती हैं (जैसे- सिलेजिनेला में), किन्तु जल उपलब्ध होते ही पुन: फैलकर वृद्धि करने लगती हैं। इस प्रकार के पौधों को पुनर्जीवनक्षम पादप (resurrection plants) या प्रोपोफाइट कहते हैं।
4. पुष्प, फल और बीज (Flower, Fruit and Seed) – मरुभिद् पौधों में पुष्प व फल का निर्माण अनुकूल समय में ही होता है। फल व बीज कठोर, मोटे आवरण से ढके होते हैं।
आन्तरिक लक्षण
मरुद्भिद् पादपों का मुख्य उद्देश्य जलव्यय को कम करने का होता है। इसी आधार पर आन्तरिक लक्षणों में परिवर्तन आता है जो निम्न प्रकार से हैं –
1. मूल पूर्ण विकसित, संवहन ऊतक अधिक मात्रा में होता है।
2. अधिचर्म पर लिग्निन व क्यूटिन की मोटी परत, कुछ में मोम व सिलिका का जमाव भी होता है। कनेर (Nerium) में बाह्यत्वचा बहुपर्तीय (multilayered epidermis) होती है।
3. अधिचर्म की कोशिकाएँ छोटी, सटी हुई जमी होती हैं। पत्तियों की बाहरी सतह चमकीली होने से सूर्य प्रकाश को परावर्तित कर रक्षा करती है।
4. कुछ पौधों में तने की रूपरेखा उभार (ridge) व खांचों में विभेदित होती है; जैसे-केज्यूराइना (Casurina) व इनमें रन्ध्र गहरे गर्तों में खांचों के तल अथवा किनारों पर स्थित होते हैं, इन्हें गर्तीय रन्ध्र (sunken stomata) कहते हैं। इसी प्रकार कनेर की पत्ती की निचली अधिचर्म गर्ते में व्यवस्थित रहती है। इन गर्तो को रन्ध्रीय गुहिका (stomatal cavity) कहते हैं। इन गुहिकाओं के अधिचर्म में रोम व अधिचर्मीय रोम पाये जाते हैं जिससे ये सीधे शुष्क हवा के सम्पर्क में न रहकर वाष्पोत्सर्जन को कम करते हैं। पौधों के अधिचर्म में गर्तीय रन्ध्र (sunken stomata) पाये जाते हैं।
5. विशेष प्रकार की घास; जैसे-सामा (Psamma), पौआ (Poa) में जलाभाव के समय पत्तियाँ गोलाई में लिपट कर अपनी सुरक्षा करती हैं ये प्रवृत्ति बुलीफॉर्म कोशिकाओं (Bulliform cells) के द्वारा होती है जो कि पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा में पाई जाती हैं। इस प्रकार की कोशिकाएँ एग्रोपाइरोन (Agropyron), बांस, गन्ने की पत्ती, टाइफा (Typha), एमोफिला (Ammophilla) में भी पाई जाती हैं।
6. उपत्वचा (Hypodermis) – यह पूर्ण विकसित होती है तथा प्राय: दृढ़ोतकीय ऊतकों की बनी होती है जो यांत्रिक सामर्थ्य (mechanical support) प्रदान करती है।
7. वल्कुट (Cortex) – यह मृदूतक कोशिकाओं (parenchymatous cells) का बना होता है। कोशिकाओं के मध्य अन्तराकोशिकीय स्थान (intercellular spaces) नहीं पाये जाते हैं। इसमें रेजिने तथा लेटेक्स वाहिकाओं की उपस्थिति होती है, जैसे-पाइनस (Pinus) और कैलोट्रोपिस (Calotropis)। जिन पादपों में पर्ण सुविकसित या बहुत छोटी आकृति की या शल्की पर्ण होती है उनमें आशुपाती (caducous) प्रवृत्ति होने के कारण झड़ जाती है। इन पौधों के स्तम्भ वल्कुट में प्रायः खम्भाकार ऊतक (patlisade tissue) पाया जाता है जो पर्ण के अभाव की पूर्ति कर प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न करवाता है; जैसे-केज्यूराइना, केलोट्रोपिस, केपेरिस, एक्वीजिटम इत्यादि। जिन पौधों की पत्तियों का सूक्ष्म आकार होता है, उन्हें माइक्रोफिलस पादप (microphyllous plants) भी कहते हैं।
8. इन पादपों में प्रायः कोशिकाओं का आकार अपेक्षाकृत छोटा तथा अन्तरकोशिकीय स्थानों का कुल आयतन अत्यधिक कम होता है। इनकी आन्तरिक शारीरिक रचना में दृढ़ोतकीय ऊतकों की बहुलता होती है। इनकी उपस्थिति शुष्कानुकुलित गुणों में एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। दृढ़ोतक कोशिकाओं के अतिरिक्त दृढ़ोतक या दृढ़क कोशिकाओं (sclereids or sclerotic cells) की अनेक प्रकार की कोशिकाओं; जैसे- समव्यासी दृढ़ कोशिकाएँ (brachysclereids), वृहत् कोशिकाएँ (macrosclereids), अस्थिदृढक (osteosclereids) भी पाई जाती हैं।
9. पत्तियों में पर्ण मध्योतक पूर्ण रूप से खम्भाकार और स्पंजी मृदूतक (palisade and spongy parenchyma) में विभेदित होता है। इन दोनों प्रकार के ऊतकों में से खम्भ ऊतक, स्पंजी ऊतक की तुलना में अधिक मात्रा में परिवर्धित होता है; जैसे- कनेर में खम्भ ऊपर और निचली अधिचर्मों के निकट होता है तथा स्पंजी मृदूतक इन दोनों खम्भ ऊतकों के बीच व्यवस्थित रहता है। पाइनस (Pinus) की सूजाकार पत्तियों की पर्ण मध्योतक की कोशिकाओं की भीतरी सतह पर वलन (folds) होते हैं तथा अनुप्रस्थ काट में खूटी के समान, कोशिका गुहा (cell cavity) में निकले हुए प्रतीत होते हैं। ये वलन पर्ण मध्योतक की क्रियात्मक सतह बढ़ा देते हैं।
10. अन्तःत्वचा (Endodermis) – अन्त:त्वचा की कोशिकाओं में स्टार्च कण विद्यमान होते हैं। इसलिए इसे स्टार्च आच्छद (starch sheath) भी कहते हैं। कभी कभी इन कोशिकाओं में केस्पेरीयन पट्टियाँ (casparian strips) भी पाई जाती हैं।
11. संवहन ऊतक सुविकसित होता है। प्रायः दारू (xylem) की मात्रा फ्लोएम (phloem) की तुलना में अधिक होती है। संवहन पूलों (vascular bundles) की संख्या बढ़कर एक जाल सा बन जाता है। जाइलम में कोशिकाओं का आकार छोटा होता है किन्तु वाहिकाएँ (vessels) बड़ी और लम्बी होती हैं तथा भित्तियों पर लिग्निन की अधिक मात्रा पाई जाती है। फ्लोएम में बास्ट तन्तु (bast fibres) अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।
12. पादपों में द्वितीयक वृद्धि के कारण कॉर्क, छाल व वार्षिक वलय पाई जाती हैं।
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